आत्मा का मुक्त स्वभाव
(
१८९६ ई० में न्यूयार्क में दिया हुआ व्याख्यान)
हमने देखा है, सांख्य का विश्लेषण द्वैतवाद--प्रकृति और आत्माओं में पर्यवसित
होता है। आत्माओं की संख्या अनंत है, तथा अमिश्र होने के कारण आत्मा का विनाश
नहीं हो सकता, इसलिए वह प्रकृति से स्वतंत्र है। प्रकृति का परिणाम होता है
तथा वह यह समग्र प्रपंच प्रकाशित करती है। सांख्य के मत के अनुसार आत्मा
निष्क्रिय है। वह अमिश्र है, तथा प्रकृति आत्मा के अपवर्ग अथवा उसकी मुक्ति
साधित करने के लिए ही इस समग्र प्रपंचजाल का विस्तार करती है, तथा आत्मा जब
समझ पाती है कि वह प्रकृति नहीं है, तभी उसकी मुक्ति होती है। दूसरी ओर यह भी
हमने देखा है कि सांख्यवादियों को बाध्य होकर स्वीकार करना पड़ा था कि
प्रत्येक आत्मा सर्वव्यापी है। आत्मा जब अमिश्र पदार्थ है, तब वह ससीम हो नहीं
सकती; क्योंकि समग्र सीमाबद्ध भाव देश, काल अथवा निमित्त के द्वारा बना होता
है। आत्मा जब संपूर्ण रूप से इन सबसे अतीत है, तब उसमें ससीम भाव कुछ रह नहीं
सकता। ससीम होने पर उसे देश के भीतर रहना होगा, और इसका अर्थ है, उसकी एक देह
अवश्य ही रहेगी, तथा जिसकी देह है, वह अवश्य प्रकृति के अंतर्गत है। यदि आत्मा
का आकार होता, तब तो आत्मा प्रकृति से अभिन्न होती। अतएव आत्मा निराकार है;
तथा जो निराकार है, वह यहाँ, वहाँ अथवा और कहीं है, यह नहीं कहा जाता। वह
अवश्य ही सर्वव्यापी होगी। सांख्य दर्शन इससे आगे और अधिक नहीं गया।
सांख्यवादियों के इस मत के विरुद्ध वेदांतवादियों की प्रथम आपत्ति यह है कि
सांख्य का यह विश्लेषण संपूर्ण नहीं है। यदि प्रकृति एक निरपेक्ष वस्तु है एवं
आत्मा भी यदि निरपेक्ष वस्तु है, तो दो निरपेक्ष वस्तुएं हुईं और जिन सब
युक्तियों से आत्मा का सर्वव्यापी होना प्रमाणित होगा, वे युक्तियाँ प्रकृति
के पक्ष में भी प्रयुक्त हो सकेंगी, इसलिए वह भी समग्र देश-काल-निमित्त के
अतीत होगी। प्रकृति यदि इस प्रकार की ही हो, तो उसका किसी प्रकार का परिणाम
अथवा विकास नहीं होगा। इससे निष्कर्ष निकला कि दो निरपेक्ष अथवा पूर्ण वस्तुएं
स्वीकार करनी होती हैं और यह असंभव है। वेदांतवादी का इस संबंध में क्या
समाधान है ? उसका समाधान यह है कि स्थूल जड़ से महत् अथवा बुद्धि तत्त्व तक
प्रकृति का समग्र विकार जब, अचेतन है, तब जिससे मन चिंता कर सके एवं प्रकृति
काम कर सके, उसके लिए, उनके परे उनके परिचालक शक्तिस्वरूप एक चैतन्यवान पुरुष
का अस्तित्व स्वीकार करना आवश्यक है। वेदांती कहते हैं, समग्र ब्रह्माण्ड के
पश्चात् यह चैतन्यवान पुरुष विद्यमान है, उसे ही हम ईश्वर कहते हैं, इसलिए यह
जगत उससे पृथक नहीं है। वह जगत का केवल निमित्त कारण ही नहीं है, वरन् उपादान
कारण भी है। कार्य कारण का ही रूपांतर मात्र है। यह तो हम प्रतिदिन ही देख रहे
हैं। अतएव यह ईश्वर ही प्रकृति का कारण स्वरूप है। द्वैत, विशिष्टाद्वैत अथवा
अद्वैत--वेदांत के जितने विभिन्न रूप अथवा विभाग हैं, सबका यही प्रथम सिद्धांत
है कि ईश्वर इस जगत का केवल निमित्त कारण ही नहीं है, वह इसका उपादान कारण भी
है, जो कुछ जगत में है, सब वही है। वेदांत की दूसरी सीढ़ी यह है कि ये जो
आत्माएं हैं, ये भी ईश्वर के अंश स्वरूप हैं, उसी अनंत वह्नि के एक एक
स्फुलिंग मात्र अर्थात 'जैसे एक बृहत् अग्नि राशि से सहस्र-सहस्र अग्निकण
निकलते हैं, उसी प्रकार उस पुरातन पुरुष से ये सब आत्माएँ बहिर्गत हुई हैं।'
[1]
यहाँ तक तो ठीक हुआ, किंतु इस सिद्धांत से भी तृप्ति नहीं होती है। अनंत का
अंश--इन शब्दों का अर्थ क्या है ? अनंत तो अविभाज्य है। अनंत का कदापि अंश हो
नहीं सकता। पूर्ण वस्तु कदापि विभक्त हो नहीं सकती। तो फिर यह जो कहा गया,
आत्मासमूह उनसे स्फुलिंग के समान निकले हैं--इन शब्दों का तात्पर्य क्या है ?
अद्वैत वेदांती इस समस्या की इस प्रकार मीमांसा करते हैं कि वास्तव में पूर्ण
का अंश नहीं होता। प्रत्येक आत्मा यथार्थ में ब्रह्म का अंश नहीं है, वास्तव
में वह अनंत ब्रह्मस्वरूप है। तब इतनी आत्माएं किस प्रकार आयीं ? लाख लाख
जलकणों पर सूर्य का प्रतिबिंब पड़कर लाख लाख सूर्य के समान दिखायी पड़ रहा है
तथा प्रत्येक जलकण में ही क्षुद्र आकार में सूर्य की मूर्ति विद्यमान है। इसी
प्रकार ये सब आत्माएँ प्रतिबिंब रूप हैं, सत्य नहीं हैं। ये वह वास्तविक 'मैं'
नहीं हैं, जो इस जगत का ईश्वर है, ब्रह्माण्ड का अविभक्त सत्तास्वरूप है। अतएव
ये सब विभिन्न प्राणी, मनुष्य, पशु इत्यादि सब प्रतिबिंब रूप हैं, सत्य नहीं
हैं। ये प्रकृति के ऊपर प्रक्षिप्त मायामय प्रतिबिंब मात्र हैं। जगत में अनंत
पुरुष केवल एक है तथा वही पुरुष, 'तुम', 'हम' इत्यादि रूप में प्रतीय-मान हो
रहा है, किंतु यह भेद-प्रतीति मिथ्या के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। वह
विभक्त नहीं होता, विभक्त हुआ ऐसा बोध मात्र होता है। देश-काल-निमित्त के जाल
के भीतर से उसे देखने के कारण यह आपातप्रतीयमान विभाग अथवा भेद हुआ है। हम जब
ईश्वर को देश-काल-निमित्त के जाल के भीतर से देखते हैं, तब हम उसको जड़ जगत के
रूप में देखते हैं। जब और कुछ उच्चतर भूमि से, किंतु उसी जाल के भीतर से उसे
देखते हैं, तब उसे पशु के रूप में--और कुछ उच्चतर भूमि से मनुष्य के रूप
में--और ऊंचे जाने पर देव के रूप में देखते हैं। किंतु वह ब्रह्माण्ड की एक
अनंत सत्ता है एवं वही सत्तास्वरूप हम भी हैं। हम ही वह हैं, तुम भी वह
हो--उसके अंश नहीं, समग्र वही। 'वह अनंत ज्ञाता रूप में समग्र प्रपंच के परे
खड़ा है, तथा वह स्वयं समग्र प्रपंचस्वरूप है।' वह विषय, विषयी--दोनों ही है।
वह 'हम', वही 'तुम' है। यह किस प्रकार हुआ ? ज्ञाता को किस प्रकार जाना जाएगा
?
[2]
ज्ञाता अपने को कदापि जान नहीं सकता। मैं सब कुछ देखता हूँ, किंतु अपने को देख
नहीं पाता। वह आत्मा--जो ज्ञाता और सबका प्रभु है, जो प्रकृत वस्तु है--वही
जगत की समग्र दृष्टि का कारण है, किंतु अपने प्रतिबिंब के अतिरिक्त अपने को
देख अथवा अपने को जान सकना उसके लिए असंभव है। तुम दर्पण के अतिरिक्त अपना
मुँह देख नहीं पाते। इसी प्रकार आत्मा भी प्रतिबिंबित हुए बिना अपना स्वरूप
देख नहीं पाती। इस लिए यह समग्र ब्रह्माण्ड ही आत्मा का निज की उपलब्धि का
यत्नस्वरूप है। जीविसार (protoplasm) में उसका प्रथम प्रतिबिंब प्रकाशित होता
है, उसके पश्चात् उद्भिद, पशु आदि उत्तरोत्तर उत्कृष्ट प्रतिबिंबकों से, और
अंत में सर्वोत्कृष्ट प्रतिबिंब प्रदान करनेवाला माध्यम--मनुष्य प्राप्त होता
है; जैसे कोई मनुष्य अपना मुंह देखने की इच्छा से एक क्षुद्र कीचड़ से युक्त
जलाशय में देखने का प्रयत्न करके मुंह की आकृतिमात्र देख पाता है। उसके
पश्चात् वह कुछ अधिक निर्मल जल में कुछ अधिक उत्तम प्रतिबिंब देखता है, उसके
पश्चात् उज्ज्वल धातु में उसकी अपेक्षा भी श्रेष्ठ प्रतिबिंब देखता है। अंत
में दर्पण में देखने पर वह स्वतः ठीक जैसा है, ठीक वैसा ही प्रतिबिंब देखता
है। अतएव विषय और विषयी उभयस्वरूप उसी पुरुष का सर्वश्रेष्ठ प्रतिबिंब
है--'पूर्ण मानव'। तुम अब समझ सकोगे कि मानव स्वभाववश ही क्यों सब वस्तुओं की
उपासना किया करता है, तथा सब देशों में पूर्ण मानव क्यों स्वभावतः ईश्वर के
रूप में पूजे जाते हैं। तुम जो भी क्यों न कहो, इनकी उपासना अवश्य होती रहेगी।
इसीलिए लोग ईसा मसीह अथवा बुद्ध आदि अवतारों की उपासना किया करते हैं। वे अनंत
आत्मा के सर्वश्रेष्ठ प्रकाशस्वरूप हैं। हम-तुम ईश्वर के संबंध में चाहे जो
धारणा क्यों न करें, ये उसकी अपेक्षा उच्चतर हैं। एक पूर्ण मानव इन सब धारणाओं
की अपेक्षा श्रेष्ठतर है। उसमें ही वृत्त संपूर्ण होता है--विषय और विषयी एक
हो जाते हैं। उसका सब भ्रम और मोह चला जाता है। इनके स्थान पर उसे यह अनुभूति
होती है कि वह चिरकाल से वही पूर्ण पुरुष के रूप में विद्यमान है। तो फिर यह
बंधन किस प्रकार आया ? इस पूर्ण पुरुष के पक्ष में अवनत होकर अपूर्ण--स्वभाव
होना किस प्रकार संभव हुआ ? मुक्त के पक्ष में बद्ध होना किस प्रकार संभव हुआ
? अद्वैतवादी कहते हैं, वह किसी काल में बद्ध नहीं होता, वह नित्य मुक्त है।
आकाश में नाना वर्ण के नाना मेघ आ रहे हैं। वे मुहूर्त भर वहाँ ठहरकर चले जा
रहे हैं। किंतु वह एक नील आकाश बराबर समान भाव से विद्यमान है। आकाश का कदापि
परिवर्तन नहीं होता, मेघ का परिवर्तन हो रहा है। इसी प्रकार तुम सब भी पहले से
पूर्ण हो, अनंत काल से पूर्ण हो। कुछ भी तुम्हारी प्रकृति को कदापि परिवर्तित
कर नहीं सकता, कभी करेगा भी नहीं। यह जो सब धारणा है कि हम अपूर्ण हैं, हम नर
हैं, हम नारी हैं, हम पापी हैं, हम मन हैं, हमने विचार किया है, और करेंगे--यह
सब भ्रम मात्र है। तुम कदापि विचार नहीं करते, तुम्हारी किसी काल में देह नहीं
थी, तुम किसी काल में अपूर्ण नहीं थे। तुम इस ब्रह्माण्ड के आनंदमय प्रभु हो।
जो कुछ है या होगा, तुम उस सबके सर्वशक्तिमान नियन्ता हो--इस सूर्य, चंद्र,
तारा, पृथ्वी, उद्भिद, इस हमारे जगत के प्रत्येक अंश के--महान शास्ता हो।
तुम्हारी ही शक्ति से सूर्य किरण दे रहा है, तारागण अपनी प्रभा विकीर्ण कर रहे
हैं, पृथ्वी सुंदर हुई है। तुम्हारे आनंद की शक्ति से ही सब परस्पर परस्पर से
प्रेम कर रहे हैं और परस्पर के प्रति आकृष्ट हो रहे हैं। तुम्हीं सबके मध्य
विद्यमान हो, तुम्ही सर्वस्वरूप हो। किसे त्याग करोगे, अथवा किसको ही ग्रहण
करोगे ? --तुम्हीं समग्र हो ! जब इस ज्ञान का उदय होता है, तब माया मोह उसी
क्षण उड़ जाता है।
मैं एक बार भारत की मरुभूमि में भ्रमण कर रहा था। मैंने एक महीने से अधिक
भ्रमण किया था, और प्रतिदिन अपने सम्मुख अतिशय मनोरम दृश्यसमूह--अति सुंदर
सुंदर वृक्ष, सरोवर आदि--देखने को पाता था। एक दिन मैंने प्यास से विह्वल
होकर, एक सरोवर में जल पान करने की इच्छा की। किंतु ज्यों ही मैं सरोवर की ओर
अग्रसर हुआ, त्यों ही वह अंतर्हित हो गया। उसी क्षण मेरे मस्तिष्क में मानो
प्रबल आघात के सहित यह ज्ञान आया कि सारे जीवन मैं जिस मरीचिका की कथा पढ़ता आ
रहा हूँ, यह वही मरीचिका है। तब मैं अपनी यह निर्बुद्धिता स्मरण करके हँसने
लगा कि गत एक मास से मैं जो ये सब सुंदर दृश्य और सरोवर आदि देख रहा था, वे
मरीचिका के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं थे, पर मैं तब यह विवेक न कर सका। दूसरे
दिन सवेरे मैं फिर चलने लगा--वही सरोवर और सब दृश्य फिर से दिखायी पड़े, किंतु
उसके साथ साथ उसी क्षण मुझे यह ज्ञान भी हुआ कि वह मरीचिका मात्र है। एक बार
जान सकने पर उसकी भ्रम उत्पन्न करनेवाली शक्ति नष्ट हो गई थी। इसी प्रकार यह
जगद्भ्रांति एक दिन हटेगी। यह समग्र ब्रह्माण्ड एक दिन हमारे सामने से
अंतर्हित होगा। इसका नाम ही प्रत्यक्षानुभूति है। दर्शन, केवल बात करने की बात
अथवा तमाशा नहीं है। वह प्रत्यक्ष अनुभूत होगा। यह शरीर उड़ जाएगा, यह पृथ्वी
एवं और जो कुछ है, सब उड़ जाएगा--हम देह अथवा हम मन हैं, यह जो हमारा ज्ञान
है, यह कुछ क्षण के लिए चला जाएगा अथवा यदि कर्म का संपूर्ण क्षय हो जाए, तो
एकदम चला जाएगा, फिर लौटकर नहीं आएगा; तथा यदि कर्म का कुछ अंश शेष रहे, तो
जैसा कुम्हार का चाक है--हाँडी बन जाने पर भी पूर्ण वेग से कुछ क्षण घूमता
रहता है, उसी प्रकार माया-मोह संपूर्ण रूप से दूर हो जाने पर भी यह देह कुछ
दिन रह जाएगी। यह जगत--नर-नारी, प्राणी--सब ही फिर आएंगे--जैसे दूसरे दिन भी
मरीचिका दिखायी पड़ी थी। किंतु पहले के समान वे सब, शक्ति-विस्तार नहीं कर
सकेंगे, कारण साथ साथ यह ज्ञान भी आएगा कि हमने उनका स्वरूप जान लिया है, तब
वे फिर बद्ध नहीं कर सकेंगे, किसी प्रकार का दुःख, कष्ट, शोक फिर आ नहीं
सकेगा। जब दुःखकर विषय कुछ आएगा, मन उससे कह सकेगा कि हम जानते हैं, तुम भ्रम
मात्र हो। जब मानव यह अवस्था लाभ करता है, तो उसे जीवन्मुक्त कहते हैं।
जीवन्मुक्त का अर्थ है, जीवित अवस्था में ही जो मुक्त है। ज्ञान योगी के जीवन
का उद्देश्य यही जीवन्मुक्त होना है। वे ही जीवन्मुक्त हैं, जो इस जगत में
अनासक्त होकर वास कर सकते हैं। वे जल के पद्म-पत्र के समान रहते हैं--जैसे जल
में रहने पर भी जल उसे कदापि भिगो नहीं सकता, उसी प्रकार वे जगत में निर्लिप्त
भाव से रहते हैं। वे मनुप्य जाति में सर्वश्रेष्ठ हैं, केवल इतना ही क्यों,
सकल प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं। क्योंकि उन्होंने उस पूर्ण पुरुष के सहित
अभेद भाव उपलब्ध किया है। उन्होंने उपलब्धि की है कि वे भगवान् के सहित अभिन्न
हैं। जितने दिन तुम्हारा ज्ञान रहता है कि भगवान् के साथ तुम्हारा अति सामान्य
भेद भी है, उतने दिन तुम्हारा भय रहेगा। किंतु जब जानोगे कि तुम्हीं वे हो,
उनमें और तुममें कोई भेद नहीं है, उनका समग्र ही तुम हो, तब सब भय दूर हो जाता
है। 'वहाँ कौन किसको देखता है ? कौन किसकी उपासना करता है ? जहाँ एक व्यक्ति
अन्य को देखता है, एक व्यक्ति अन्य से बात करता है, एक व्यक्ति अन्य की बात
सुनता है, वह नियम का राज्य है। जहाँ कोई किसी अन्य को नहीं देखता, कोई किसी
अन्य से बात नहीं करता, वही सर्वश्रेष्ठ है, वही भूमा है, वही ब्रह्म है।'
[3]
तुम्हीं वह हो एवं सर्वदा ही वह है। तब जगत का क्या होगा, हम जगत का क्या
उपकार कर सकेंगे--इस प्रकार के प्रश्न ही यहाँ उदित नहीं होते। यह उस शिशु के
प्रश्न के समान है--हमारे बड़े होने पर हमारी मिठाई का क्या होगा ? बालक भी
कहा करता है, हमारे बड़े होने पर हमारे संगमरमर के टुकड़ों की क्या दशा होगी,
तो हम बड़े नहीं होंगे ! छोटा बच्चा भी कहता है, हमारे बड़े होने पर हमारे
पुतले पुतलियों की क्या दशा होगी ? --इस जगत के संबंध में पूर्वोक्त
प्रश्नावलियाँ भी उसी प्रकार हैं। भूत, भविष्यत्, वर्तमान, इन तीन कालों में
ही जगत का अस्तित्व नहीं है। यदि हम आत्मा का यथार्थ स्वरूप जान पायें, यदि हम
जान पायें कि इस आत्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, और जो कुछ है सब स्वप्न
मात्र है, उनका वास्तव में अस्तित्व नहीं है, तो इस जगत का दुःख, दारिद्रय,
पाप-पुण्य--कुछ भी हमको चंचल नहीं कर सकेगा। यदि उन सबका अस्तित्व ही न रहे,
तो किसके लिए और क्यों हम कष्ट करेंगे ? ज्ञानयोगी यही शिक्षा देते हैं। अतएव
साहस का अवलंबन करके मुक्त होओ, तुम्हारी चिंता-शक्ति तुमको जितनी दूर तक ले
जा सके, साहसपूर्वक उतनी दूर आगे बढ़ो एवं उसे जीवन में परिणत करो। यह ज्ञान
लाभ करना बड़ा कठिन है। यह महा साहसी का कार्य है। जो सब पुतलियाँ फोड़कर फेंक
देने का साहस करता है--केवल मानसिक पुतलियाँ ही नहीं, इंद्रियों के द्वारा
भोग्य विषय समूहरूपी पुतलियों को भी जो फोड़कर फेंक दे सकता है--यह उसका ही
कार्य है। यह शरीर हम नहीं हैं, इसका नाश अवश्यंभावी है--यही तो हुआ उपदेश।
किंतु इस उपदेश की दुहाई देकर लोग अद्भुत व्यापार किया करते हैं। कोई उठकर कह
सकता है, 'हम देह नहीं हैं, अतएव हमारे माथे की पीड़ा ठीक हो जाए।" किंतु उसके
सिर की पीड़ा यदि उसकी देह में न रहे, तो फिर कहाँ हो ? सहस्र तहस्र सिर की
पीड़ाएँ और सहस्र सहस्र देह आएं जाएं--उसमें हमारा क्या है ? 'मेरा जन्म भी
नहीं है, मेरी मृत्यु भी नहीं है; मेरे पिता भी नहीं हैं, माता भी नहीं हैं;
मेरा शत्रु भी नहीं है, मित्र भी नहीं है। क्योंकि वे सब मैं ही हूँ। मैं ही
अपना बंधु हूँ, मैं ही अपना शत्रु हूँ, मैं ही अखंड सच्चिदानंद हूँ, मैं ही वह
हूँ, मैं ही वह हूँ।'
[4]
यदि मैं सहस्र देहों में ज्वर और अन्यान्य रोग भोग करता हूँ, तो और लक्ष लक्ष
देहों में मैं स्वास्थ्य संभोग कर रहा हूँ। यदि सहस्र सहस्र देह में मैं भूखों
मर रहा हूँ, तो अन्य सहस्र देहों में दावतें खा रहा हूँ। यदि सहस्र देहों में
मैं दुःखभोग करता रहा हूँ, तो सहस्र देहों में मैं सुखभोग कर रहा हूँ। कौन
किसकी निंदा करेगा ? कौन किसकी स्तुति करेगा ? किसे चाहेगा, किसे छोड़ेगा ?
मैं किसी को चाहता भी नहीं हूँ, किसी का त्याग भी नहीं करता, क्योंकि मैं
समग्र ब्रह्माण्डस्वरूप हूँ। मैं ही अपनी स्तुति कर रहा हूँ, मैं ही अपनी
निंदा कर रहा हूँ। मैं अपने ही कारण कष्ट पा रहा हूँ और अपनी ही इच्छा से सुखी
हूँ। मैं स्वाधीन हूँ। यही ज्ञानी का भाव है, वह महासाहसी और निर्भीक होता है।
समग्र ब्रह्माण्ड नष्ट क्यों न हो जाए, वह हंसकर कहता है, उसका कभी अस्तित्व
ही नहीं था, वह केवल माया और भ्रम मात्र है। इसी प्रकार वह अपनी आँखों के
समक्ष जगत्ब्रह्माण्ड को वास्तव में अंतर्हित होते देखता है और विस्मय के सहित
प्रश्न करता है--'यह जगत कहाँ था ? और कहाँ विलीन हो गया ?
[5]
इस ज्ञान की साधना के संबंध में विचार करने के पहले हम और एक अन्य बौद्धिक
प्रश्न के समाधान का यत्न करेंगे। अभी तक तर्कशास्त्र का कठोर अनुशासन मानकर
चला गया है। यदि कोई भी व्यक्ति विचार में प्रवृत्त हो, तो जब तक वह इस
सिद्धांत पर न पहुंचे कि सत्ता केवल एक ही है, और सब कुछ भी नहीं है, तब तक
उसके ठहरने का उपाय नहीं है। विचारशील मानव जाति के लिए इस सिद्धांत का अवलंबन
करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है। किंतु इस क्षण प्रश्न यह है, जो असीम,
सदा पूर्ण, सदानंदमय, अखंड सच्चिदानंदस्वरूप है, वह इन सब भ्रमों के अधीन किस
प्रकार हुआ ? यह प्रश्न जगत में सब कहीं सदैव किया जाता रहा है। इस प्रश्न का
ग्राम्य रूप यह है--इस जगत में पाप किस प्रकार आया ? प्रश्न का यही ग्राम्य और
व्यावहारिक रूप है। तथा दूसरा उसका सर्वाधिक दार्शनिक रूप है। किंतु दोनों एक
ही हैं। विविध शैलियों में, विविध स्वरों से यही प्रश्न पूछा जाता रहा है।
किंतु निम्नतर रूपों से प्रश्न करने पर उसकी ठीक मीमांसा नहीं हो पाती;
क्योंकि सेब, साँप और नारी की कहानी
[6]
में उसका उत्तर नहीं मिलता। इस स्तर पर प्रश्न शिशुस्तरीय रह जाता है और उसका
उत्तर भी उसी प्रकार है। किंतु अब इस प्रश्न ने अत्यंत गुरुतर रूप धारण किया
है--यह भ्रम किस प्रकार आया ? तथा उत्तर भी उसके अनुसार ही गंभीर है। उत्तर यह
है कि असंभव प्रश्न के उत्तर की आशा मत करो। इस प्रश्न के अंतर्गत वाक्य
परस्पर विरोधी हैं, अतः प्रश्न ही असंभव है। क्यों, पूर्णता शब्द से किसका बोध
होता है ? जो देश-काल-निमित्त के अतीत है, वह ही पूर्ण है। उसके पश्चात् तुम
जिज्ञासा कर रहे हो, पूर्ण किस प्रकार अपूर्ण हुआ ? तर्कशास्त्र की भाषा में
निबद्ध करने पर प्रश्न इस प्रकार होगा, 'जो वस्तु कार्य-कारण-संबंध के अतीत
है, वह किस प्रकार कार्यरूप में परिणत होती है ?' यहाँ तो तुम अपना ही खंडन कर
रहे हो। तुमने पहले ही मान लिया है, वह कार्य-कारण-संबंध के अतीत है, उसके
पश्चात् तुम जिज्ञासा कर रहे हो, किस प्रकार वह कार्य में परिणत हुआ।
कार्य-कारण-संबंध की सीमा के भीतर ही केवल प्रश्न पूछा जा सकता है, जिस सीमा
तक देश-काल-निमित्त का अधिकार है, उसी सीमा तक यह प्रश्न पूछा जा सकता है।
किंतु उसके परे की वस्तु के संबंध में प्रश्न करना ही निरर्थक है, क्योंकि
प्रश्न न्यायशास्त्र के विरुद्ध हो जाता है। देश-काल-निमित्त की सीमा-रेखा के
भीतर किसी काल में उसका उत्तर दिया नहीं जा सकता, तथा उसके अतीत प्रदेश में
जाने पर क्या उत्तर प्राप्त होगा, यह वहाँ जाने पर ही जाना जा सकता है। इसीलिए
विज्ञ व्यक्ति इस प्रश्न को रहने देते हैं। जब कोई व्यक्ति बीमार होता है, तब
उस रोग की उत्पत्ति के विषय में पहले जानने का हठ न करके, रोग दूर करने का वह
यत्न करता है।
यह प्रश्न एक और रूप में पूछा जाता है। यह अपेक्षाकृत निम्न स्तर का तो है,
किंतु अधिक व्यावहारिक है। प्रश्न यह है--इस भ्रम को किसने उत्पन्न किया ? कोई
सत्य क्या कभी भ्रम उत्पन्न कर सकता है ? कदापि नहीं। हम देखते हैं, एक भ्रम
ही एक अन्य भ्रम को उत्पन्न करता रहता है, यह फिर एक अन्य भ्रम की सृष्टि करता
है, इसी प्रकार चलता रहता है। रोग ही रोग-प्रसव करता रहता है, स्वास्थ्य कभी
रोग--प्रसव नहीं करता। जल और जल की तरंग में कोई भेद नहीं है--कार्य कारण का
ही दूसरा एक रूप मात्र है। कार्य जब भ्रम है, तब उसका कारण भी अवश्य भ्रम
होगा। यह भ्रम किसने उत्पन्न किया ? अवश्य और एक भ्रम ने। इसी प्रकार तर्क
करने पर तर्क का फिर अंत नहीं होगा--भ्रम का फिर आदि प्राप्त नहीं होगा। अब
तुम्हारा एक प्रश्न केवल शेष रहेगा कि 'भ्रम का अनादित्व स्वीकार करने पर क्या
तुम्हारा अद्वैतवाद खण्डित नहीं होता ? क्योंकि, तुम जगत में दो सत्ताएँ
स्वीकार कर रहे हो--एक तुम और एक वह भ्रम।' इसका उत्तर यह है कि भ्रम को सत्ता
कहा नहीं जा सकता। तुम जीवन में सहस्रों स्वप्न देखते हो; किंतु वे सब
तुम्हारे जीवन के अंशस्वरूप नहीं हैं। स्वप्न आता है और चला जाता है। उसका कोई
अस्तित्व नहीं है। भ्रम को एक सत्ता कहना केवल एक वितंडा है। अतएव जगत में
नित्यमुक्त और नित्यानंदस्वरूप एकमात्र सत्ता है, और वही तुम हो।
अद्वैतवादियों का यही चरम सिद्धांत है।
इस क्षण प्रश्न किया जा सकता है, इन विभिन्न उपासना-प्रणालियों का क्या होगा ?
वे सब रहेंगी। वे केवल अंधकार में आलोक के लिए यत्न करना मात्र हैं और इस
प्रकार यत्न करते करते आलोक आएगा। हम अभी देख चुके हैं कि आत्मा अपने को देख
नहीं सकती। हमारा समग्र ज्ञान माया (मिथ्या) के जाल में अवस्थित है, मुक्ति
उसके बाहर है, इस जाल में दासत्व है, इसका सब कुछ ही नियमाधीन है। उसके बाहर
और कोई नियम नहीं है। यह ब्रह्माण्ड जितनी दूर तक है, उतनी दूर तक सत्ता
नियमाधीन है, मुक्ति उसके बाहर है। जितने दिन तुम देश-काल-निमित्त के जाल में
विद्यमान हो, उतने दिन तक तुम मुक्त हो--यह बात करना निरर्थक है, क्योंकि सब
कुछ इस जाल में, कठोर नियम में, कार्य-कारण-श्रृंखला में बद्ध हैं। तुम जो भी
विचार करते हो, वह पूर्वगामी कारण का कार्य है, प्रत्येक भावना कारण-प्रसूत
है। इच्छा को स्वाधीन कहना एकदम निरर्थक है। ज्यों ही वह अनंत सत्ता मानो इस
मायाजाल के भीतर पड़ती है, त्यों ही वह इच्छा का आकार धारण करती है। इच्छा
मायाजाल में आबद्ध उस पुरुष का किचित् अंश मात्र है। इसलिए 'स्वाधीन इच्छा'
शब्द एक कुनाम है। स्वाधीनता अथवा मुक्ति के संबंध में यह सब वागाडंबर और वृथा
है। माया के भीतर स्वाधीनता नहीं है।
प्रत्येक व्यक्ति ही विचार, मन और कार्य में एक पत्थर के टुकड़े अथवा उस मेज
के समान बद्ध है। मैं तुम लोगों के सम्मुख व्याख्यान दे रहा हूँ, और तुम सब
मेरी बात सुन रहे हो, यह दोनों तथ्य कठोर कार्य-कारण-नियम के अधीन हैं। माया
से जितने दिन तुम बाहर नहीं जाते, उतने दिनों स्वाधीनता अथवा मुक्ति नहीं है।
वह मायातीत अवस्था आत्मा की यथार्थ स्वाधीनता है। किंतु मनुष्य कितने ही
तीक्ष्णबुद्धि क्यों न हों और उनको इस युक्ति की सत्यता या बल कितने ही अधिक
स्पष्ट रूप से क्यों न दिखे कि यहाँ की कोई भी वस्तु स्वाधीन या मुक्त नहीं हो
सकती, फिर भी सबको बाध्य होकर अपने को स्वाधीन मानना पड़ता है, ऐसा किए बिना
रहा ही नहीं जा सकता। जब तक हम न कहें कि हम स्वाधीन हैं, तब तक कोई काम ही
नहीं चल सकता। इसका तात्पर्य यह है कि हम जिस स्वाधीनता की बात करते हैं, वह
मेघराशि के भीतर से निर्मल नीलाकाश की झलक मात्र है और नीलाकाशरूप वास्तविक
स्वाधीनता उसके बाहर है। यथार्थ स्वाधीनता इसी भ्रम में, इसी मिथ्या में, इसी
व्यर्थ के संसार में, इंद्रिय-मन-देह से समन्वित इस ब्रह्माण्ड में रह नहीं
सकती। ये समग्र अनादि अनंत स्वप्न--जो हमारे वश में नहीं हैं, जिन सबको वश में
लाया भी नहीं जा सकता, जो अव्यवस्थित हैं, भग्न और असामंजस्यमय हैं--उन्हीं
समग्र स्वप्नों को लेकर हमारा यह जगत है। तुम जब स्वप्न में देखते हो कि बीस
सिरवाला एक दैत्य तुमको पकड़ने के लिए आ रहा है और तुम उससे भाग रहे हो, तुम
उसे विचित्र नहीं समझते। तुम मानते हो, यह तो ठीक ही हो रहा है। हम जिसे नियम
कहते हैं, वह भी उसी प्रकार का है। जो कुछ तुम नियम के रूप में निर्दिष्ट करते
हो, यह सब केवल आकस्मिक घटना मात्र है, इनका कोई अर्थ नहीं है। इस स्वप्न की
अवस्था में तुम उसे नियम कहकर अभिहित करते हो। माया के भीतर जहाँ तक यह
देश-काल निमित्त का नियम विद्यमान है, वहाँ तक स्वाधीनता अथवा मुक्ति नहीं है
और ये उपासना की विविध पद्धतियाँ इस माया के अंतर्गत हैं। ईश्वर की धारणा, एवं
पशु और मनुष्य की धारणा, सब इस माया के भीतर हैं, इसलिए सब समभाव से भ्रमात्मक
हैं, सब स्वप्नमात्र हैं। आजकल हमें बहुत से अतिबुद्धि दिग्गज देखने को मिलते
हैं। तुम उनके समान तर्क न कर बैठना, इस विषय में सावधान हो जाओ। वे कहते हैं,
ईश्वर-धारणा भ्रमात्मक है, किंतु इस जगत की धारणा सत्य है। वास्तव में ये
दोनों धारणाएँ ही एक तर्क पर प्रतिष्ठित हैं। उन्हें केवल यथार्थतः नास्तिक
होने का अधिकार है, जो इह जगत और पर जगत दोनों ही अस्वीकार करते हैं। दोनों ही
एक ही युक्ति पर प्रतिष्ठित हैं। ईश्वर से लेकर क्षुद्रतम जीव तक, घास की
पत्ती से लेकर ब्रह्मा तक, उसी एक माया का राजत्व है। एक ही प्रकार से उनके
अस्तित्व की प्रतिष्ठा अथवा अस्तित्वहीनता सिद्ध होती है। जिस व्यक्ति को
ईश्वर-धारणा भ्रमात्मक लगती है, उसको अपनी देह और मन की धारणा भी भ्रमात्मक
लगना उचित है। जब ईश्वर उड़ जाता है, तब देह और मन भी उड़ जाता है और जब दोनों
का ही लोप होता है, तब वही जो यथार्थ सत्ता है, वह चिरकाल के लिए रह जाती है।
'वहाँ आँखें जा नहीं सकतीं, वाणी नहीं जा सकती, मन भी नहीं। हम उसे देख नहीं
पाते और जान भी नहीं पाते।'
[7]
अभी तक बौद्धिक दृष्टि से सब स्पष्ट है, किंतु अब साधना की बात आ रही है।
सच्चा कार्य तो साधना है। इस एकत्व की उपलब्धि के लिए क्या किसी प्रकार की
साधना की आवश्यकता है? निश्चित रूप से है। साधना के द्वारा तुम लोगों को
ब्रह्म बनना होगा, यह बात नहीं है। वह तो तुम पहले से ही हो। तुम लोगों को
ईश्वर बनना होगा अथवा पूर्ण बनना होगा, यह बात सत्य नहीं है। तुम सदैव
पूर्णस्वरूप हो और जिस क्षण ही तुम सोचते हो, तुम पूर्ण नहीं हो, वह एक भ्रम
होता है। यह भ्रम--जिसके कारण तुम लोग अपने को अमुक पुरुष, अमुक नारी समझते
हो--अन्य एक भ्रम के द्वारा दूर हो सकता है; और साधना अथवा अभ्यास ही वह अन्य
भ्रम है। आग आग को खा जाएगी--तुम एक भ्रम को नष्ट करने के लिए दूसरे भ्रम की
सहायता ले सकते हो। मेघ का एक खण्ड आकर मेघ के दूसरे खण्ड को हटा देगा, अंत
में दोनों ही चले जाएंगे। तो ये साधनाएँ क्या हैं ? हमें सर्वदा ही स्मरण रखना
होगा कि, हम मुक्त होंगे, यह बात नहीं है, हम सदा ही मुक्त हैं। हम बद्ध हैं,
इस प्रकार की भावना मात्र ही भ्रम है; हम सुखी हैं अथवा हम असुखी हैं, इस
प्रकार की भावना मात्र ही गुरुतर भ्रम है और एक भ्रम आयगा कि हमें मुक्त होने
के लिए साधना, उपासना और चेष्टा करनी होगी; यह भ्रम आकर पहले भ्रम को भगा
देगा, तब दोनों भ्रम ही दूर हो जाएंगे।
मुसलमान और हिंदू लोमड़ी को अत्यंत अपवित्र मानते हैं। यदि कुत्ता भोजन छु ले
तो उसे फेंक देना पड़ता है, उसे फिर कोई नहीं खाता। किसी मुसलमान के घर में एक
लोमड़ी प्रवेश करके मेज से कुछ खाना लेकर भाग गई। वह व्यक्ति बड़ा ही दरिद्र
था। उसने अपने लिए उस दिन अत्यंत उत्तम भोज का आयोजन किया था और वह सबका सब
लोमड़ी के स्पर्श से अपवित्र हो गया! इस कारण उसने एक मुल्ला के पास जाकर
निवेदन किया--"साहब, एक लोमड़ी आकर हमारे खाने में से कुछ खा गई है, अब उसका
कोई उपाय कीजिए। हमने सब वस्तुएँ अत्यंत स्वादिष्ट तैयार करायी थीं। हमारी
बड़ी इच्छा थी कि परम तृप्ति के सहित हम वह भोजन करें। इतने में नीच लोमड़ी ने
आकर सब नष्ट कर दिया। आप इसकी जो भी हो, एक व्यवस्था कर दीजिए।" मुल्ला ने
मुहूर्त भर कुछ सोचा, उसके पश्चात् उसने उसका एकमात्र समाधान स्थिर करके कहा,
"इसका एकमात्र उपाय--एक कुत्ता लाकर, जिस थाल को लोमड़ी जूठा कर गई है, उसी
थाल से उसे कुछ खिलाना है। कुत्ते और लोमड़ी सदा लड़ते रहते हैं। जब लोमड़ी की
जूठन भी तुम्हारे पेट में जाएगी, कुत्ते की जूठन भी जाएगी, ये दोनों जूठनें
परस्पर वहाँ झगड़ा करेंगी, तब सब शुद्ध हो जाएगा!" हम लोग भी बहुत कुछ इसी
प्रकार की समस्या में पड़ गए हैं। हम अपूर्ण हैं, यह एक भ्रम है; हमने उसे दूर
करने के लिए और एक भ्रम की सहायता ली कि पूर्णता प्राप्त करने के लिए हमें
सावना करनी होगी। इस क्षण एक भ्रम दूसरे भ्रम को दूर कर देगा, जैसे हम एक
काँटा निकालने के लिए दूसरे काँटे की सहायता लेते हैं और अंत में दोनों ही
काँटे फेंक देते हैं। ऐसे व्यक्ति विद्यमान हैं, जिनको एक बार 'तत्त्वमसि'
सुनने पर ही तत्क्षण ज्ञान का उदय होता है। क्षणमात्र में यह जगत उड़ जाता है
तथा आत्मा का यथार्थ स्वरूप प्रकाशित हो जाता है, किंतु और सबको इस बंधन की
धारणा दूर करने के लिए कठोर यत्ल करना होता है।
प्रथम प्रश्न यह है, ज्ञानयोगी होने के अधिकारी कौन हैं ? वे ही जिनमें निम्न
लिखित साधन-संपत्तियाँ हैं :
प्रथमतः इहामूत्रफलभोगविराग--इस जीवन में अथवा पर जीवन में सब प्रकार के
कर्मफल और सब प्रकार की भोगवासना का त्याग है। यदि तुम ही इस जगत के स्रष्टा
हो तो तुम जो इच्छा करोगे, वही पाओगे; क्योंकि तुम वह अपने भोग के लिए सर्जन
करोगे। केवल किसी को शीघ्र अथवा किसी को विलंब से यह फललाभ होता है। कोई कोई
तत्क्षण उसे प्राप्त करते हैं; अन्य के पक्ष में उनके समस्त भूतसंस्कार उनकी
वासना--पूर्ति में बाधा डालते रहते हैं। हम इह जन्म अथवा पर जन्म की भोगवासना
को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया करते हैं। इह जन्म अथवा पर जन्म अथवा तुम्हारा किसी
प्रकार का जन्म है, यह नितांत अस्वीकार करो; क्योंकि जीवन मृत्यु का ही
नामांतर मात्र है। तुम जो जीवनसंपन्न प्राणी हो, यह भी अस्वीकार करो; जीवन के
लिए कौन व्यस्त है ? जीवन एक भ्रम मात्र है, मृत्यु उसका एक और पक्ष मात्र है।
सुख इस भ्रम का ही एक पक्ष है, और दुःख दूसरा पक्ष है। सब विषय इसी प्रकार
हैं। जीवन अथवा मृत्यु को लेकर तुम्हारा क्या हुआ? यह सब तो मन की सृष्टि
मात्र है। इसे ही इहामूत्रफलभोगविराग कहते हैं।
इसके पश्चात् शम अथवा मन के संयम की आवश्यकता है। मन को ऐसा शांत करना होगा कि
वह फिर तरंगों में भग्न होकर सब प्रकार की वासनाओं का लीलाक्षेत्र न बने। मन
को स्थिर रखना होगा, बाहर के अथवा भीतर के किसी कारण से उसमें जिससे तरंग न
उठे--केवल इच्छा-शक्ति के द्वारा मन को संपूर्ण रूप से संयत करना होगा।
ज्ञानयोगी शारीरिक अथवा मानसिक किसी प्रकार की सहायता नहीं लेते। वे केवल
दार्शनिक विचार, ज्ञान और इच्छा--शक्ति इन सब साधनों में ही विश्वास करते हैं।
उसके पश्चात् तितिक्षा--किसी प्रकार का विलाप किए बिना सब दुःखों का सहन है।
जब तुम्हारा किसी प्रकार का अनिष्ट घटित हो, उस ओर ध्यान न दो। यदि सामने बाघ
आए, स्थिर होकर खड़े रहो। भागेगा कौन? अनेक व्यक्ति हैं, जो तितिक्षा का
अभ्यास करते हैं और उसमें कृतकार्य होते हैं। ऐसे व्यक्ति अनेक हैं, जो भारत
में ग्रीष्म ऋतु में प्रखर मध्याह्न सूर्य के ताप में गंगातीर पर सोये रहते
हैं और शीतकाल में गंगाजल में सारे दिन डूबे रहते हैं। उसकी कुछ परवाह नहीं
करते। अनेक व्यक्ति हिमालय की तुषारराशि में बैठे रहते हैं, किसी प्रकार के
वस्त्र आदि की चिंता नहीं करते। ग्रीष्म ही अंततः क्या है ? शीत ही अंततः क्या
है ? यह सब आए जाए--हमारा उसमें क्या है ? 'हम' तो शरीर नहीं हैं। पाश्चात्य
देशों में इस पर विश्वास कर पाना कठिन है, किंतु इस प्रकार लोग किया करते हैं,
यह जान लेना अच्छा है। जिस प्रकार तुम्हारे देश के लोग तोप के मुँह में अथवा
युद्धक्षेत्र के बीच में कूद पड़ने में साहस दिखाया करते हैं, हमारे देश के
लोग विचार द्वारा अपने दर्शन को खोज लेने, तथा उसे कार्यरूप में परिणत करने
में साहसी हैं। वे इसके लिए प्राण दिया करते हैं। हम सच्चिदानंदस्वरूप हैं-- सोऽहं, सोऽहं। प्रतिदिन
के कर्म-जीवन में विलासिता को बनाए रखना जिस प्रकार पाश्चात्य आदर्श है, उसी
प्रकार हमारा आदर्श कर्म जीवन में सर्वोच्च मूल्य के आध्यात्मिक भाव की रक्षा
करना है। हम इसके द्वारा यही प्रमाणित करना चाहते हैं कि धर्म केवल वाग्जाल
नहीं है, किंतु इस जीवन में ही धर्म को सर्वांग, संपूर्ण रूप से कार्य में
परिणत किया जा सकता है। यही तितिक्षा है--सब कुछ सहन करना--किसी विषय में
असंतोष प्रकाशित न करना। हमने स्वतः ऐसे व्यक्ति देखे हैं, जो कहते हैं, 'हम
आत्मा हैं--हमारे निकट ब्रह्माण्ड का भी गौरव क्या है ! सुख, दुःख, पाप,
पुण्य, शीत, उष्ण, ये सब हमारे लिए कुछ भी नहीं हैं।' यही तितिक्षा है--देह के
भोगसुख के लिए न दौड़ना। धर्म क्या है ? धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार
प्रार्थना करना है, "हमें यह दो, वह दो?" धर्म के संबंध में ये सब धारणाएँ
प्रमाद हैं। जो धर्म को इस प्रकार का मानते हैं, उनमें ईश्वर और आत्मा की
यथार्थ धारणा नहीं है। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, 'गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं,
किंतु उनकी दृष्टि रहती है जानवरों के शव की ओर।' जो हो, तुममें धर्म के संबंध
में जो सब धारणाएँ हैं, उनका फल क्या है, बताओ तो सही। मार्ग स्वच्छ करना और
उत्तम प्रकार का अन्न-वस्त्र एकत्र करना? अन्न वस्त्र के लिए कौन चिंता करता
है ? प्रति मुहूर्त लाखों व्यक्ति आ रहे हैं, लाखों जा रहे हैं--कौन परवाह
करता है ? इस क्षुद्र जगत के सुख-दुःख को ग्राह्य मानते ही क्यों हो? यदि साहस
हो, उनके बाहर चले जाओ। सब नियमों के बाहर चले जाओ, समग्र जगत उड़ जाए--तुम
अकेले आकर खड़े होओ। 'हम परम सत् हैं, परम चित् और परम आनंदस्वरूप-- सोऽहं, सोऽहं।'
आत्मा और विश्व
प्रकृति में प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म बीज रूप से प्रारंभ होकर अधिकाधिक स्थूल
रूप धारण करती है। कुछ समय तक उसकी स्थिति रहती है और फिर प्रारंभ वाले
सूक्ष्म बीज में ही उसका लय हो जाता है। उदाहरणार्थ, यह हमारी पृथ्वी एक
नीहारिका-सदृश पदार्थ से उत्पन्न हुई, और ठंडी होते-होते उसने यह ठोस ग्रहरूप
धारण कर लिया, जिस पर हम रहते हैं। भविष्य में पुनः इसके टुकड़े टुकड़े हो
जाएंगे और यह आदिम नीहारिका की दशा को वापस चली जाएगी। विश्व में अनादि काल से
यही हो रहा है। मनुष्य, प्रकृति और जीवन का यही संपूर्ण इतिहास है।
प्रत्येक विकास (evolution) के पहले एक अंतर्भाव या संकोच (involution) रहता
है, प्रत्येक व्यक्त दशा के पहले उसकी अव्यक्त दशा रहती है। समूचा वृक्ष
सूक्ष्म रूप से अपने कारण बीज में निहित रहता है। समूचा मनुष्य सूक्ष्म रूप से
उस एक जीविसार (protoplasm) में विद्यमान रहता है। यह समूचा विश्व मूल
अव्याकृत प्रकृत में निहित रहता है। प्रत्येक वस्तु सूक्ष्म रूप से अपने कारण
में उपस्थित रहती है। यह विकास अर्थात--स्थूल से स्थूलतर रूपों की क्रमिक
अभिव्यक्ति सत्य है, पर साथ ही यह भी सत्य है कि इसके प्रत्येक स्तर के पूर्व
उसका संकोच विद्यमान है। यह समग्र व्यक्त जगत पहले अपनी अंतर्भूत अवस्था में
विद्यमान था, जो इन विविध रूपों में अभिव्यक्त हुआ; और फिर से वह अपनी उसी
अंतर्भूत दशा को प्राप्त हो जाएगा। उदाहरणार्थ, एक छोटे पौदे का जीवन लो। हम
देखते हैं कि उसकी एकता दो वस्तुओं से मिलकर बनी है--उसका विकास या वृद्धि, और
ह्रास या मृत्यु। इनसे एक इकाई बनती है--पौदे का जीवन। जीवन की श्रृंखला में
पौदे के जीवन को एक कड़ी समझकर हम पूरी जीवन-श्रृंखला पर विचार कर सकते हैं।
जीविसार से प्रारंभ होकर वही एक जीवन पूर्ण' मनुष्य में परिणत होता है। मनुष्य
इस श्रृंखला की एक कड़ी है, और विविध जीव-जन्तु तथा पेड़-पौदे इसकी अन्य
कड़ियाँ हैं। अब इनके मूल अथवा उद्गम की ओर चलो--उन सूक्ष्माणुओं की ओर, जिनसे
इनका प्रारंभ हुआ है, और पूरी श्रृंखला को एक ही जीवन मानो, तो देखोगे कि यहाँ
का प्रत्येक विकास किसी न किसी पहले से अवस्थित वस्तु का ही विकास है।
जहाँ से यह प्रारंभ होता है, वहीं इसका अंत भी होता है। इस जगत की परि-समाप्ति
कहाँ है ? --बुद्धि में। सोचो, क्या ऐसा नहीं है ? विकासवादियों के मतानुसार
सृष्टि-क्रम में बुद्धि ही का विकास सबसे अंत में हुआ। अतएव सृष्टि का प्रारंभ
या कारण भी बुद्धि ही होना चाहिये। प्रारंभ में यह बुद्धि अव्यक्त अवस्था में
रहती है और क्रमशः वही व्यक्त रूप में प्रकट होती है। अतः विश्व में पायी
जानेवाली समस्त बुद्धियों की समष्टि ही वह अव्यक्त विश्व-बुद्धि है, जो उन
विभिन्न रूपों में प्रकाशित हो रही है, और जिसे शास्त्रों ने 'ईश्वर' की
संज्ञा दी है। शास्त्र कहते हैं कि हम ईश्वर से ही आते हैं और फिर वहीं लौट
जाते हैं। उसे चाहे किसी भी नाम से पुकारो, पर यह तुम अस्वीकार नहीं कर सकते
कि प्रारंभ में वह अनंत विश्व बुद्धि ही कारणरूप में विद्यमान रहती है।
सम्मिश्रण कैसे बनता है ? सम्मिश्रण वह है जिसमें कई कारण मिलकर कार्यरूप में
परिणत हो जाते हैं। अतः ये सम्मिश्रण केवल कार्य-कारण वृत्त के अंदर ही सीमित
रहते हैं। जहाँ तक कार्य और कारण के नियमों की पहुँच है, वहीं तक सम्मिश्रण
संभव है। उसके आगे, सम्मिश्रण की बात करना ही असंभव है, क्योंकि वहाँ तो कोई
नियम लागू हो ही नहीं सकता। नियम केवल उस जगत में ही लागू होता है, जहाँ हम
देख, सुन, अनुभव और कल्पना कर सकते हैं। उसके आगे हम किसी नियम की कल्पना ही
नहीं कर सकते। वही हमारा जगत है जिसका ज्ञान हमें इंद्रियों या अनुमान द्वारा
होता है। इंद्रियों से हम वे बातें जानते हैं, जो उनकी पहुँच के भीतर हैं, और
जो बातें हमारे मन में हैं, उन्हें हम अनुमान द्वारा जानते हैं। जो कुछ शरीर
से परे है, वह इंद्रियगम्य नहीं है, और जो मन से परे है, वह अनुमान या विचार
के अतीत है, अतः वह हमारे जगत से बाहर की वस्तु है और इसीलिए वह
कार्यकारण-नियम के भी अतीत है। मनुष्य की आत्मा कार्य कारण-नियम से परे होने
के कारण सम्मिश्रण नहीं है, किसी कारण का परिणाम नहीं है, अतएव वह नित्य मुक्त
है और नियम के भीतर जो कुछ सीमित है, उस सबका शासनकर्ता है। चूँकि वह
सम्मिश्रण नहीं है, इसलिए उसकी मृत्यु कभी न होगी, क्योंकि मृत्यु का अर्थ है
उन सब उपादानों में परिणत हो जाना, जिनसे वस्तु निर्मित हुई है, विनाश का अर्थ
है कार्य का अपने कारण में वापस चला जाना। जब आत्मा की मृत्यु नहीं हो सकती
तो, उसका जन्म भी नहीं हो सकता, क्योंकि जीवन और मृत्यु एक ही वस्तु की दो
विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। अतएव आत्मा जन्म और मृत्यु से परे है। तुम्हारा
जन्म कभी हुआ ही नहीं, और मृत्यु भी कभी नहीं होगी। जन्म और मृत्यु तो केवल
शरीर के धर्म हैं।
अद्वैतवाद कहता है कि 'अस्तित्व' रखनेवाली सभी वस्तुओं की समष्टि ही का नाम
विश्व है। स्थूल या सूक्ष्म जो कुछ भी है, वह यहीं है। कारण और कार्य दोनों
यहीं हैं; सभी का स्पष्टीकरण और समाधान भी यहीं है। जिसे हम 'व्यष्टि' कहते
हैं, वह 'समष्टि' ही की अभिव्यक्ति मात्र है। अपनी आत्मा के भीतर से ही हमें
विश्व की धारणा होती है, और यह बहिर्जगत् उसी अंतर्जगत् का प्रकाश मात्र है।
स्वर्ग इत्यादि लोकों की बातें यदि सच भी हों, तो वे सब इस विश्व में ही हैं।
वे सब मिलकर इस 'इकाई' का निर्माण करते हैं। अतः, प्रथम धारणा है एक 'समष्टि'
की, एक 'इकाई' की, जो कि नानाविध छोटे छोटे अणुओं से बनी हुई है, और हममें से
प्रत्येक ही मानो इस 'इकाई' का एक एक अंश है। प्रकट रूप में हम भले ही अलग अलग
प्रतीत होते हों, पर यथार्थ में हैं एक ही। हम जितना ही अपने को इस समष्टि से
अलग समझते हैं, उतना ही अधिक दुःखी होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि
अद्वैत ही नीति-शास्त्र का आधार है।
ईश्वर और ब्रह्म
स्वामी विवेकानन्द जब यूरोप में थे, तब उनसे एक प्रश्न किया गया था कि वेदांत
दर्शन में ईश्वर का क्या स्थान है। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था :
ईश्वर व्यष्टियों की समष्टि है, और साथ ही वह एक व्यष्टि भी है, ठीक उसी
प्रकार जैसे कि मानव-शरीर इकाई होते हुए भी कोशिकाओं (cells) रूपी अनेक
व्यष्टियों की समष्टि है। समष्टि ही ईश्वर है, और व्यष्टि ही जीव है। अतएव
ईश्वर का अस्तित्व जीव के अस्तित्व पर निर्भर है, जैसा कि शरीर का कोशिकाओं
पर; और इसका विलोम भी सत्य है। इस प्रकार, जीव और ईश्वर सह-अस्तित्वमान हैं;
यदि एक का अस्तित्व है, तो दूसरे का होगा ही। और चूँकि, हमारी इस धरती को
छोड़कर अन्य सब उच्चतर लोकों में अच्छाई या शुभ की मात्रा बुराई या अशुभ की
मात्रा से बहुत ज्यादा है, हम इन सबकी समष्टि ईश्वर--को सर्वशुभ कह सकते हैं।
समष्टिस्वरूप होने के कारण, सर्वशक्तिमत्ता और सर्वज्ञता ईश्वर के प्रत्यक्ष
गुण हैं, इन्हें सिद्ध करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं। ब्रह्म इन
दोनों से परे है और निर्विकार है। ब्रह्म ही एक ऐसी इकाई है, जो अन्य इकाइयों
की समष्टि नहीं--वह अखंड है, वह क्षुद्र जीवाणु से लेकर ईश्वर तक समस्त भूतों
में व्याप्त है, उसके बिना किसीका अस्तित्व संभव नहीं, और जो कुछ भी सत्य है,
वह ब्रह्म ही है। जब मैं सोचता हूँ अहं ब्रह्मास्मि, तब केवल मैं ही वर्तमान
रहता हूँ, मेरे अतिरिक्त और किसी का अस्तित्व नहीं रह जाता। यही बात औरों के
विषय में भी है। अतएव, प्रत्येक ही वही पूर्ण ब्रह्मतत्त्व है।
आत्मा
,
प्रकृति तथा ईश्वर
वेदांत दर्शन के अनुसार मनुष्य को तीन तत्त्वों से बना हुआ कह सकते हैं। उसका
बाह्यतम अंश शरीर है अर्थात मनुष्य का स्थूल रूप, जिसमें आँख, नाक, कान आदि
संवेदन के साधन हैं। यह आँख भी दृष्टि का कारण नहीं है, यह केवल यन्त्र भर है।
इसके पीछे इंद्रिय है। इसी प्रकार कान श्रोत्रेंद्रिय नहीं हैं, वे केवल साधन
हैं, उनके पीछे इंद्रिय है, अथवा वह जिसे आधुनिक शरीर-शास्त्र की भाषा में
केंद्र कहते हैं। अवयवों को संस्कृत में इंद्रिय कहते हैं। यदि आँखों को
नियंत्रित करने वाले केंद्र नष्ट हो जाएं, तो आँखें देख न सकेंगी। यही बात
हमारी सभी इंद्रियों के संबंध में है। फिर इंद्रियाँ जब तक अन्य 'कुछ' किसी एक
दूसरी वस्तु से संलग्न नहीं, तब तक वे स्वयं किसी चीज के संवेदन में समर्थ
नहीं हो पातीं। वह 'कुछ' है मन। तुमने अनेक बार देखा होगा, कि जब तुम किसी
चिंतन में तल्लीन थे, तुमने घड़ी की टिन्टिन् को नहीं सुना! क्यों ? तुम्हारे
कान अपने स्थान पर थे, तरंगों का उनमें प्रवेश भी हुआ, वे मस्तिष्क की ओर
परिचालित भी हुईं, फिर भी तुमने नहीं सुना, क्योंकि तुम्हारी इंद्रिय के साथ
तुम्हारा मन संयुक्त नहीं था। बाह्य वस्तुओं की प्रतिमाएँ इंद्रियों के ऊपर
पड़ती हैं और जब इंद्रियों से मन जुड़ जाता है, तब वह उस प्रतिमा को ग्रहण
करता है और वह उसे जो रूप-रंग प्रदान करता है, उसे अहंता अथवा 'मैं' कहते हैं।
एक उदाहरण लो : मैं किसी कार्य में व्यस्त हूँ और एक मच्छर मेरी अंगुली में
काट रहा है। मैं इसका अनुभव नहीं करता, क्योंकि मेरा मन किसी दूसरी वस्तु में
लगा हुआ है। बाद में जब मेरा मन इंद्रियों से प्रेषित प्रतिमाओं से संयुक्त हो
जाता है, तब प्रतिक्रिया होती है। इस प्रतिक्रिया के फलस्वरूप मैं मच्छर की
उपस्थिति के प्रति सचेत हो जाता हूँ। इसी प्रकार केवल मन का इंद्रिय से
संयुक्त हो जाना पर्याप्त नहीं है, इच्छा के रूप में प्रतिक्रिया का होना भी
आवश्यक है। वह शक्ति जहाँ से प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है, जो ज्ञान और निश्चय
करने की शक्ति है, उसे 'बुद्धि' कहते हैं। प्रथम, बाह्य साधन, फिर इंद्रिय और
फिर मन का इंद्रिय से संयुक्त होना और इसके बाद बुद्धि की प्रतिक्रिया
अत्यावश्यक है; और जब ये सब बातें पूरी हो जाती हैं, तब तुरंत 'मैं' और बाह्य
वस्तु का विचार तत्काल स्फुरित होता है। तभी प्रत्यक्ष, प्रत्यय और ज्ञान की
निष्पत्ति होती है। कर्मेन्द्रिय जो साधन मात्र है, शरीर का अवयव है और उसके
पीछे ज्ञानेंद्रियां हैं जो उससे सूक्ष्मतर हैं, तब क्रमशः मन, बुद्धि और
अहंकार हैं। वह अहंकार कहता है : 'मैं'--मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ
इत्यादि। यह संपूर्ण प्रक्रिया जिन शक्तियों द्वारा परिचालित होती हैं, उन्हें
तुम जीवनी-शक्तियाँ कह सकते हो, संस्कृत में उन्हें 'प्राण' कहते हैं। मनुष्य
का यह स्थूल रूप, यह शरीर, जिसमें बाह्य साधन हैं, संस्कृत में स्थूल शरीर'
कहा गया है। इसके पीछे इंद्रिय से प्रारंभ होकर मन, बुद्धि तथा अहंकार का
सिलसिला है। ये तथा प्राण मिलकर जो यौगिक घटक बनाते हैं, उसे सूक्ष्म शरीर
कहते हैं। ये शक्तियाँ अत्यंत सूक्ष्म तत्त्वों से निर्मित हैं, इतने सूक्ष्म
कि शरीर पर लगने वाला बड़ा से बड़ा आधात भी उन्हें नष्ट नहीं कर सकता। शरीर के
ऊपर पड़ने वाली किसी भी चोट के बाद वे जीवित रहते हैं। हम देखते हैं कि स्थूल
शरीर स्थूल तत्त्वों से बना हुआ है और इसीलिए वह हमेशा नूतन होता, और निरंतर
परिवर्तित होता रहता है। किंतु मन, बुद्धि और अहंकार आदि आभ्यंतर इंद्रिय
सूक्ष्मतम तत्त्वों से निर्मित हैं, इतने सूक्ष्म कि वे युग-युग तक चलते रहते
हैं। वे इतने सूक्ष्म हैं कि कोई भी वस्तु उनका प्रतिरोध नहीं कर सकती, वे
किसी भी अवरोध को पार कर सकते हैं। स्थूल शरीर बुद्धि-शून्य है, और वह
सूक्ष्मतर पदार्थ से बना होने के कारण सूक्ष्म भी है। यद्यपि एक भाग मन, दूसरा
बुद्धि तथा तीसरा अहंकार कहा जाता है, पर एक ही दृष्टि में हमें विदित हो जाता
है कि इनमें से किसी को भी 'ज्ञाता' नहीं कहा जा सकता। इनमें से कोई भी
प्रत्यक्षकर्ता, साक्षी, कार्य का भोक्ता अथवा क्रिया को देखनेवाला नहीं है।
मन की ये समस्त गतियाँ, बुद्धि तत्त्व अथवा अहंकार अवश्य ही किसी दूसरे के लिए
हैं। सूक्ष्म भौतिक द्रव्य से निर्मित होने के कारण ये स्वयं प्रकाशक नहीं हो
सकतीं। उनका प्रकाशक तत्त्व उन्हीं में अंतर्निहित नहीं हो सकता। उदाहरणार्थ
इस मेज की अभिव्यक्ति किसी भौतिक वस्तु के कारण नहीं हो सकती। अतः उन सबके
पीछे कोई न कोई अवश्य है, जो वास्तविक प्रकाशक, वास्तविक दर्शक और वास्तविक
भोक्ता है, जिसे संस्कृत में आत्मा कहते हैं--मनुष्य की आत्मा, मनुष्य का
वास्तविक 'स्व'। वस्तुओं का असली देखनेवाला यही है। बाह्य साधन तथा इन्द्रियाँ
प्रभावों को ग्रहण करती हैं, उन्हें मन तक पहुँचाती हैं, मन उन्हें बुद्धि तक
ले जाता है, बुद्धि उन्हें दर्पण की भाँति प्रतिबिंबित करती है और इन सबका
आधार आत्मा है, जो उनकी देखभाल करता है तथा अपनी आज्ञाएँ तथा निर्देश प्रदान
करता है। वह इन सभी यंत्रों का शासक है, घर का स्वामी तथा शरीर का
सिंहासनारूढ़ राजा है। अहंकार, बुद्धि और चिंतन की शक्तियाँ, इंद्रियों, उनके
यंत्र, शरीर और ये सब उसकी आज्ञा का पालन करते हैं। इन सबको प्रकाशित करने
वाला वही है। यह मनुष्य की आत्मा है। इसी प्रकार, हम देख सकते हैं कि जो विश्व
के एक छोटे से अंश के संबंध में सत्य है, वही संपूर्ण विश्व के संबंध में भी
होना चाहिए। यदि समानुरूपता विश्व का नियम है, तो विश्व का प्रत्येक अंश उसी
योजना के अनुसार बना हुआ होना चाहिए, जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व बना हुआ है।
इसलिए हमारा यह सोचना स्वाभाविक है कि विश्व कहे जानेवाले इस स्थूल भौतिक रूप
के पीछे एक सूक्ष्मतर तत्त्वों का विश्व अवश्य होगा, जिसे हम विचार कहते हैं
और उसके पीछे एक 'आत्मा' होगी, जो इस समस्त विचार को संभव बनाती है, जो आज्ञा
देती है और जो इस विश्व की सिंहासनारूढ़ राज्ञी है। वह आत्मा, जो प्रत्येक मन
और शरीर के पीछे है, 'प्रत्यगात्मा' अथवा व्यक्तिगत आत्मा कही जाती है और जो
आत्मा विश्व के पीछे उसकी पथप्रदर्शक, नियंत्रक और शासक है, वह ईश्वर है।
दूसरी विचारणीय बात यह है कि ये सभी वस्तुएँ कहाँ से आयीं। उत्तर है : आने का
क्या अर्थ है ? यदि यह अर्थ है कि शून्य से किसी वस्तु की उत्पत्ति हो सकती
है, तो यह असंभव है। यह सारी सृष्टि, यह समस्त अभिव्यक्ति शून्य से उत्पन्न
नहीं हो सकती। बिना कारण कोई वस्तु उत्पन्न नहीं हो सकती और कार्य कारण के
पुनरुत्पादन के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यहाँ यह शीशे का गिलास है। मान लो
इसके हम टुकड़े-टुकड़े कर दें, इसे पीस डालें, और रासायनिक पदार्थों की मदद से
इसका प्रायः उन्मूलन सा कर दें, तो क्या इस सबसे वह शून्य में वापस जा सकता है
? कदापि नहीं। आकार नष्ट हो जाएगा, किंतु जिन परमाणुओं से वह निर्मित है, वे
बनें रहेंगे, वे हमारी ज्ञानेंद्रियों से परे भले ही हो जाएं, परंतु वे बने
रहते हैं और यह नितांत संभव है कि इन्हीं पदार्थों से एक दूसरा गिलास भी बन
सके। यदि यह बात एक दृष्टांत के संबंध में सत्य है, तो प्रत्येक उदाहरण में भी
सत्य होगी। कोई वस्तु शून्य से नहीं बनायी जा सकती। न कोई वस्तु शून्य में
पुनः परिवर्तित की जा सकती है। यह सूक्ष्म से सूक्ष्मतर, और फिर स्थूल से
स्थूलतर रूप ग्रहण कर सकती है। वर्षा की बूँद समुद्र से निकलकर भाप के रूप में
ऊपर उठती है और वायु द्वारा पहाड़ों की ओर परिचालित होती है, वहाँ वह पुनः जल
में बदल जाती है और सैकड़ों मील बहकर फिर अपने जनक समुद्र में मिल जाती है।
बीज से वृक्ष उत्पन्न होता है। वृक्ष मर जाता है, और केवल बीज छोड़ जाता है।
वह पुनः दूसरे वृक्ष के रूप में उत्पन्न होता है, जिसका पुनः बीज के रूप में
अंत होता है और यही क्रम चलता है। एक पक्षी का दृष्टांत लो, कैसे वह अंडे से
निकलता है, एक सुंदर पक्षी बनता है, अपना जीवन पूरा करता है और अंत में मर
जाता है। वह केवल भविष्य के बीज रखनेवाले कुछ अंडों को ही छोड़ जाता है। यही
बात जानवरों के संबंध में सत्य है, और यही मनुष्यों के संबंध में भी। लगता है
कि प्रत्येक वस्तु, कुछ बीजों से, कुछ प्रारम्भिक तत्त्वों से अथवा कुछ
सूक्ष्म रूपों से उत्पन्न होती है और जैसे जैसे वह विकसित होती है, स्थूलतर
होती जाती है, और फिर अपने सूक्ष्म रूप को ग्रहण करके शांत पड़ जाती है। समस्त
विश्व इसी क्रम से चल रहा है। एक ऐसा भी समय आता है, जब यह संपूर्ण विश्व गल
कर सूक्ष्म हो जाता है, अंत में मानो पूर्णतया विलुप्त जैसा हो जाता है, किंतु
अत्यंत सूक्ष्म भौतिक पदार्थ के रूप में विद्यमान रहता है। आधुनिक विज्ञान एवं
गणित ज्योतिष (खगोल विद्या) से हमें विदित होता है कि यह पृथ्वी शीतल होती जा
रही है और कालांतर में यह अत्यंत शीतल हो जाएगी, और तब यह खंड-खंड होकर
अधिकाधिक सूक्ष्म होती हुई पुनः आकाश के रूप में परिवर्तित हो जाएगी। किंतु उस
सामग्री की रचना के निमित्त, जिससे दूसरी पृथ्वी प्रक्षिप्त होगी, परमाणु
विद्यमान रहेंगे। यह प्रक्षिप्त पृथ्वी भी विलुप्त होगी, और फिर दूसरी
आविर्भूत होगी। इस प्रकार यह जगत अपने मूल कारणों में प्रत्यावर्तन करेगा, और
उसकी सामग्री संघटित होकर--अवरोह, आरोह करती, आकार ग्रहण करती लहर के
सदृश--पुनः आकार ग्रहण करेगी। कारण में बदलकर लौट जाने और फिर पुनः बाहर निकल
आने की प्रक्रिया को संस्कृत में क्रमशः 'संकोच' और 'विकास' कहते हैं, जिनका
अर्थ सिकुड़ना और फैलना होता है। इस प्रकार समस्त विश्व संकुचित होता और
प्रसार जैसा करता है। आधुनिक विज्ञान के अधिक मान्य शब्दों का प्रयोग करें तो
हम कह सकते हैं कि वह अंतर्भूत (सन्निहित) और विकसित होता है। तुम विकास के
संबंध में सुनते हो कि किस प्रकार सभी आकार निम्नतर आकारों से विकसित होते हैं
और धीरे-धीरे आधिकाधिक विकसित होते रहते हैं। यह बिल्कुल ठीक है, लेकिन
प्रत्येक विकास के पहले अंतर्भाव का होना आवश्यक है। हमें यह ज्ञात है कि जगत
में उपलब्ध ऊर्जा का पूर्ण योग सदैव समान रहता है, और भौतिक पदार्थ अविनाशी
है। तुम किसी भी प्रकार भौतिक पदार्थ का एक परमाणु भी बाहर नहीं ले जा सकते। न
तो तुम एक फुट-पाउंड ऊर्जा कम कर सकते हो और न जोड़ सकते हो। संपूर्ण योग सदैव
वही रहेगा। संकोचन और विकास के कारण केवल अभिव्यक्ति में अंतर होता है। इसलिए
यह प्रस्तुत चक्र अपने पूर्वगामी चक्र के अंतर्भाव या संकोचन से प्रसूत विकास
का चक्र है। और यह चक्र पुनः अंतर्भूत या संकुचित होगा, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर
होता जाएगा और उससे फिर दूसरे चक्र का उद्भव होगा। समस्त विश्व इसी क्रम से चल
रहा है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सृष्टि का यह अर्थ नहीं कि अभाव से भाव की
रचना हुई है। अधिक उपयुक्त शब्द का व्यवहार करें तो हम कहेंगे कि अभिव्यक्ति
हो रही है और ईश्वर विश्व को अभिव्यक्त करने वाला है। यह विश्व मानो उसका
निःश्वास है जो उसी में समाहित हो जाता है और जिसे वह फिर बाहर निकाल देता है।
वेदों में एक अत्यंत सुंदर उपमा दी गयो है वह अनादि पुरुष निःश्वास के रूप में
इस विश्व को प्रकट करता है और श्वास रूप से इसे अपने में अंतर्निहित करता है।
उसी प्रकार जिस प्रकार कि हम एक छोटे से धूलि-कण को साँस के द्वारा निकालते और
साँस द्वारा उसे पुनः भीतर ले जाते हैं। यह सब तो बिल्कुल ठीक है, लेकिन
प्रश्न हो सकता है : प्रथम चक्र में इसका क्या रूप था ? उत्तर है : प्रथम चक्र
से क्या आशय है ? वह तो था ही नहीं। यदि तुम काल का प्रारंभ बतला सकते हो, तो
समय की समस्त धारणा ही ध्वस्त हो जाती है। उस सीमा पर विचार करने की चेष्टा
करो, जहाँ काल का प्रारंभ हुआ, तुमको उस सीमा के परे के समय के संबंध में
विचार करना पड़ेगा। जहाँ देश प्रारंभ होता है, उस पर विचार करो; तुमको उसके
परे के देश के संबंध में भी सोचना पड़ेगा। देश और काल अनंत हैं, अतः न तो उनका
आदि है और न अंत। यह धारणा इससे कहीं अच्छी है कि ईश्वर ने पाँच मिनट में
विश्व की रचना की और फिर सो गए और तब से आज तक सो रहे हैं। दूसरी ओर यह धारणा
अनंत स्रष्टा के रूप में हमें ईश्वर प्रदान करती है। लहरों का एक क्रम है, वे
उठती हैं और गिरती हैं और ईश्वर इस अनंत प्रक्रिया का संचालक है। जिस प्रकार
विश्व अनादि और अनंत है, उसी प्रकार ईश्वर भी। हम देखते हैं कि ऐसा होना
अनिवार्य है, क्योंकि यदि हम कहें कि किसी समय सृष्टि नहीं थी, सूक्ष्म अथवा
स्थूल रूप में भी, तो हमें यह भी कहना पड़ेगा कि ईश्वर भी नहीं था, क्योंकि हम
ईश्वर को साक्षी, विश्व के द्रष्टा के रूप में समझते हैं। जब विश्व नहीं था,
तब वह भी नहीं था। एक प्रत्यय के बाद दूसरा प्रत्यय आता है। कार्य के विचार से
हम कारण के विचार तक पहुँचते हैं और यदि कार्य नहीं होगा, तो कारण भी नहीं
होगा। इससे यह स्वाभाविक निष्कर्ष निकलता है कि जिस प्रकार विश्व शाश्वत है,
उसी प्रकार ईश्वर भी शाश्वत है।
आत्मा भी शाश्वत है। क्यों ? सबसे पहले तो यह कि वह पदार्थ नहीं है। वह स्थूल
शरीर भी नहीं है, न वह सूक्ष्म शरीर है जिसे मन अथवा विचार कहा गया है। न तो
यह भौतिक शरीर है और न ईसाई मत में प्रतिपादित सूक्ष्म शरीर है। स्थूल शरीर और
सूक्ष्म शरीर परिवर्तनशील हैं। स्थूल शरीर तो प्रायः प्रत्येक मिनट बदलनेवाला
है और उसकी मृत्यु हो जाती है, किंतु सूक्ष्म शरीर सुदीर्घ अवधि तक बना रहता
है,--जब तक कि हम मुक्त नहीं हो जाते और तब वह भी विलग हो जाता है। जब व्यक्ति
मुक्त हो जाता है, तब उसका सूक्ष्म शरीर विघटित हो जाता है। स्थूल शरीर तो
जितनी बार वह मरता है, विघटित होता रहता है। आत्मा किसी प्रकार के परमाणुओं से
निर्मित न होने के कारण निश्चय ही अविनाशी है। विनाश से हम क्या समझते हैं ?
विनाश उन उपादानों का उच्छदन है, जिनसे किसी वस्तु का निर्माण होता है। यदि यह
गिलास चूर-चूर हो जाए, तो इसके उपादान विघटित हो जाएंगे और वही गिलास का नाश
होगा। अणुओं का विघटन ही हमारी दृष्टि में विनाश है। इससे यह स्वाभाविक
निष्कर्ष निकलता है कि जो वस्तु परमाणुओं से निर्मित नहीं है, वह नष्ट नहीं की
जा सकती, वह कभी विघटित नहीं हो सकती। आत्मा का निर्माण भौतिक तत्त्वों से
नहीं हुआ है। यह एक अविभाज्य इकाई है। इसलिए वह अनिवार्यतः अविनाशी है। इसी
कारण इसका अनादि और अनंत होना भी अनिवार्य है। अतः आत्मा अनादि एवं अनंत है।
तीन सत्ताएँ हैं। एक तो प्रकृति है जो अनंत है, परंतु परिवर्तनशील है। समग्र
प्रकृति अनादि और अनंत है, परंतु इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के परिवर्तन हो
रहे हैं। यह उस नदी के समान है, जो हजारों वर्षों तक समुद्र में निरंतर
प्रवाहित होती रहती है। नदी सदैव वही रहती है, परंतु वह प्रत्येक क्षण
परिवर्तित हुआ करती है, जलकण निरंतर अपनी स्थिति बदलते रहते हैं। फिर ईश्वर है
जो अपरिवर्तनशील एवं नियन्ता है और फिर आत्मा है, ईश्वर की भाँति अपरिवर्तन
शील तथा शाश्वत है, परंतु नियन्ता के अधीन है। एक तो स्वामी है, दूसरा सेवक और
तीसरी प्रकृति है।
ईश्वर विश्व की सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय का कारण है, अतः कार्य की निष्पत्ति
के लिए कारण का विद्यमान होना अनिवार्य है। केवल यही नहीं, कारण ही कार्य बन
जाता है। शीशे की उत्पत्ति कुछ भौतिक पदार्थों एवं शिल्पकार के द्वारा
प्रयुक्त कुछ शक्तियों के संयोग से होती है। शीशे में उन पदार्थों एवं
शक्तियों का योग है। जिन शक्तियों का प्रयोग हुआ है, वे शक्तियाँ संयोजन
(लगाव) की शक्ति बन गई हैं, और यदि वह शक्ति चली जाती है, तो शीशा बिखरकर
चूर-चूर हो जाएगा, यद्यपि वे पदार्थ निश्चित रूप से उस शीशे में हैं। केवल
उनका रूप परिवर्तित होता है। कारण ने कार्य का रूप धारण किया है। जो भी कार्य
तुम देखते हो, उसका विश्लेषण तुम कारण के रूप में कर सकते हो। कारण ही कार्य
के रूप में अभिव्यक्त होता है। इसका यह अर्थ है; यदि ईश्वर सृष्टि का कारण है
और सृष्टि कार्य है, तो ईश्वर ही सृष्टि बन गया है। यदि आत्माएँ कार्य और
ईश्वर कारण है, तो ईश्वर ही आत्माएँ बन गया है। अतः प्रत्येक आत्मा ईश्वर का
अंश है। जिस प्रकार एक अग्नि-पिंड से अनेक स्फुलिंग उद्भूत होते हैं, उसी
प्रकार उस अनंत सत्ता से आत्माओं का यह समस्त विश्व प्रादुर्भूत हुआ है।'
हमने देखा कि एक तो अनंत ईश्वर है, और दूसरी अनंत प्रकृति है। तथा, अनंत
संख्याओं वाली अनंत आत्माएँ हैं। यह धर्म की पहली सीढ़ी है, इसे द्वैतवाद कहते
हैं--अर्थात वह अवस्था जिसमें मनुष्य अपने और ईश्वर को शाश्वत रूप से पृथक
मानता है, जहाँ ईश्वर स्वयं एक पृथक सत्ता है और मनुष्य स्वयं एक पृथक सत्ता
है तथा प्रकृति स्वयं एक पृथक सत्ता है। फिर द्वैतवाद यह मानता है कि प्रत्येक
वस्तु में द्रष्टा और दृश्य (विषय और विषयी) एक दूसरे के विपरीत होते हैं। जब
मनुष्य प्रकृति को देखता है, तब वह द्रष्टा (विषयी) है और प्रकृति दृश्य
(विषय) है। वह द्रष्टा और दृश्य के बीच में द्वैत देखता है। जब वह ईश्वर की ओर
देखता है, वह ईश्वर को दृश्य के रूप में देखता है और स्वयं को द्रष्टा के रूप
में। वे पूर्णरूपेण पृथक हैं। यह ईश्वर और मनुष्य के बीच का द्वैत है। यह
साधारणत: धर्म के प्रति पहला दृष्टिकोण है।
इसके पश्चात् धर्म का दूसरा दृष्टिकोण आता है, जिसका अभी मैंने तुमको
दिग्दर्शन कराया है। मनुष्य यह समझने लगता है कि यदि ईश्वर विश्व का कारण है
और विश्व उसका कार्य, तो ईश्वर स्वयं ही विश्व और आत्माएँ बन गया है और वह
(मनुष्य) उस संपूर्ण ईश्वर का अंश मात्र है। हम लोग छोटे-छोटे जीव हैं, उस
अग्नि-पिंड के स्फुलिंग हैं, और समस्त सृष्टि ईश्वर की साक्षात् अभिव्यक्ति
है। यह दूसरी सीढ़ी है। संस्कृत में इसे 'विशिष्टाद्वैतवाद' कहते हैं। जिस
प्रकार हमारा यह शरीर है, और यह शरीर आत्मा के आवरण का कार्य करता है और आत्मा
इस शरीर में एवं इसके माध्यम से स्थित है, उसी प्रकार अनंत आत्माओं का यह
विश्व एवं प्रकृति ही मानो ईश्वर का शरीर है। जब अंतर्भाव का समय आता है,
ब्रह्माण्ड सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता चला जाता है, फिर भी वह ईश्वर का शरीर
बना रहता है। जब स्थूल अभिव्यक्ति होती है, तब भी सृष्टि ईश्वर के शरीर के रूप
में बनी रहती है। जिस प्रकार मनुष्य को आत्मा, मनुष्य के शरीर और मन की आत्मा
है, उसी प्रकार ईश्वर हमारी आत्माओं की आत्मा है। तुम सब लोगों ने इस उक्ति को
प्रत्येक धर्म में सुना होगा, 'हमारी आत्माओं की आत्मा।' इसका आशय यही है।
मानो वह उनमें रमता है, उन्हें निर्देश देता है और उन सबका शासक है। प्रथम
दृष्टि, द्वैतवाद के अनुसार हम सभी ईश्वर और प्रकृति से शाश्वत रूप से पृथक
व्यक्ति हैं। दूसरी दृष्टि के अनुसार हम व्यक्ति हैं, परंतु ईश्वर के साथ एक
हैं। हम सब उसी में हैं। हम सब उसी के अंश हैं, हम सब एक हैं। फिर भी मनुष्य
और मनुष्य में, मनुष्य और ईश्वर में एक कठोर व्यक्तिता है, जो पृथक है और पृथक
नहीं भी।
अब इससे भी सूक्ष्मतर प्रश्न उठता है। प्रश्न है : क्या अनंत के अंश हो सकते
हैं ? अनंत के अंशों से क्या तात्पर्य है ? यदि तुम इस पर विचार करो तो देखोगे
कि यह असंभव है। अनंत के अंश नहीं हो सकते, वह हमेशा अनंत ही रहता है और दो
अनंत भी नहीं हो सकते। यदि उसके अंश किए जा सकते हैं, तो प्रत्येक अंश अनंत ही
होगा। यदि ऐसा मान भी लें, तो वे एक दूसरे को ससीम कर देंगे और दोनों ही ससीम
हो जाएंगे। अनंत केवल एक तथा अविभाज्य ही हो सकता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह
निकलता है कि अनंत एक है, अनेक नहीं; और वही एक अनंत आत्मा, पृथक आत्माओं के
रूप में प्रतीत होनेवाले असंख्य दर्पणों में प्रति बिम्बित हो रही है। यह वही
अनंत आत्मा है, जो विश्व का आधार है, जिसे हम ईश्वर कहते हैं। वही अनंत आत्मा
मनुष्य के मन का आधार भी है, जिसे हम जीवात्मा कहते हैं।
ईश्वरत्व की धारणा
मनुष्य की आंतरिक अभीप्सा उस व्यक्ति को पाने के लिए होती है, जो प्रकृति के
नियमों से परे हो। वेदांती ऐसे नित्य ईश्वर में विश्वास करता है, जब कि बौद्ध
और सांख्यवादी केवल जन्येश्वर अर्थात वह ईश्वर जो, पहले मनुष्य था और फिर
आध्यात्मिक साधना के द्वारा ईश्वर बना, में विश्वास करते हैं। पुराण इन दो
मतवादों का समन्वय अवतारवाद द्वारा करते हैं। उनका कहना है कि जन्येश्वर नित्य
ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है, उसने माया से जन्येश्वर का रूप धारण कर
लिया है। सांख्यवादियों का नित्य ईश्वर के प्रति यह तर्क कि 'एक जीवन्मुक्त
आत्मा विश्व की रचना कैसे कर सकती है', एक मिथ्या आधार पर आश्रित है, क्योंकि
तुम एक मुक्तात्मा को कोई आदेश नहीं दे सकते। वह मुक्त है अर्थात वह जो चाहे
सो कर सकता है। वेदांत के अनुसार जन्येश्वर विश्व की रचना, पालन अथवा संहार
नहीं कर सकता।
आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य
आद्यतम धारणा यह है कि जब मनुष्य मरता है, तो उसका विलोप नहीं हो जाता। कुछ
वस्तु मनुष्य के मर जाने के बाद भी जीती है और जीती चली जाती है। संसार के तीन
सर्वाधिक पुरातन राष्ट्रों--मिस्रियों, बेबीलोनिअनों और प्राचीन हिंदुओं--की
तुलना करना और उन सबसे इस धारणा को ग्रहण करना शायद अधिक अच्छा होगा।
मिस्रियों और बेबीलोनिअनों में हमें आत्मा विषयक जो एक प्रकार की धारणा मिलती
है--वह है प्रतिरूप देह (double)। उनके अनुसार इस देह के भीतर एक प्रतिरूप देह
और है, जो वहाँ गति तथा क्रिया करती रहती है; और जब बाह्य देह मरती है, तो
प्रतिरूप बाहर चला जाता तथा एक निश्चित समय तक जीता रहता है; किंतु इस
प्रतिरूप का जीवन बाह्य शरीर के परिरक्षण पर अवलम्बित है। यदि प्रतिरूप देही
द्वारा छोड़े हुए देह के किसी अंग को क्षति पहुँचे, तो उसके भी उन्हीं अंगों
का क्षतिग्रस्त हो जाना निश्चित है। इसी कारण मिस्रियों और बेबीलोनिअनों में
शवलेपन और पिरामिड निर्माण द्वारा किसी व्यक्ति के मृत शरीर को सुरक्षित रखने
के प्रति इतना आग्रह मिलता है। बेबीलोनिअनों और प्राचीन मिस्रियों दोनों में
यह धारणा भी मिलती है कि यह प्रतिरूप चिरंतन काल जीता नहीं रह सकता; अधिक से
अधिक वह केवल एक निश्चित समय तक ही जीता रह सकता है, अर्थात केवल उतने समय तक,
जब तक उसके द्वारा त्यागे देह को सुरक्षित रखा जा सके।
दूसरी विचित्रता इस प्रतिरूप से संबंधित भय का तत्त्व है। प्रतिरूप देह सदैव
दुःखी और विपन्न रहती है। उसके अस्तित्व की दशा अत्यंत कष्ट की होती है। वह उन
खाद्य और पेय पदार्थों तथा भोगों को माँगने के निमित्त जीवित व्यक्तियों के
निकट बारंबार आती रहती है, जिनको वह अब प्राप्त नहीं कर सकती। वह नील नदी के
जल को, उसके उस ताजे जल को, पीना चाहती है, जिसको वह अब पी नहीं पाती। वह उन
खाद्य पदार्थों को पुनः प्राप्त करना चाहती है, जिनका आनंद वह इस जीवन में
लिया करती थी; और जब वह देखती है कि वह उन्हें नहीं पा सकती, तो दूसरी देह
क्रूर हो जाती है और यदि उसे वैसा आहार न दिया जाए, तो वह कभी कभी जीवित
व्यक्तियों को मृत्यु एवं विपत्ति से धमकाती है।
आर्य विचारधारा पर दृष्टि डालते ही हमें तत्काल एक बड़ा अंतर मिलता है।
प्रतिरूप की धारणा वहाँ भी है, किंतु वह एक प्रकार की आत्मिक देह का रूप ले
लेता है; और एक बड़ा अंतर यह है कि इस आत्मिक देह का जीवन, आत्मा या तुम उसे
जो भी कहो, उसके द्वारा त्यागे हुए शरीर के द्वारा परिसीमित नहीं होता। वरन्
इसके विरुद्ध, वह इस शरीर से स्वतंत्रता प्राप्त कर लेती है, और मृत शरीर को
जला देने की विचित्र आर्य प्रथा इसी कारण है। वे व्यक्ति द्वारा त्यागे शरीर
से छुटकारा पा जाना चाहते हैं, जबकि मिस्त्री दफनाकर, शवलेपन कर, या पिरामिड
बनाकर उसे सुरक्षित रखना चाहते हैं। मृतकों को नष्ट करने की नितांत आदिम
पद्धति के अतिरिक्त, किसी सीमा तक विकसित राष्ट्रों में मृत व्यक्तियों के
शरीरों से मुक्ति पाने की उनकी प्रणाली आत्मा संबधी उनकी धारणा का एक उत्तम
परिचायक होती है। जहाँ-जहाँ अपगत आत्मा की धारणा मृत शरीर की धारणा से घनिष्ठ
रूप से संबद्ध मिलती है, वहाँ हमें शरीर को सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति भी
सदैव मिलती है, और दफन करने का कोई न कोई रूप भी। दूसरी ओर, जिनमें यह धारणा
विकसित हो गई है कि आत्मा शरीर से एक स्वतंत्र वस्तु है और शव के नष्ट कर दिए
जाने पर भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचती, उनमें सदैव दाह की पद्धति का ही आश्रय
लिया जाता है। इसीलिए सभी प्राचीन आर्य जातियों में हमें शव की दाह-क्रिया
मिलती है, यद्यपि पारसियों ने शव को एक मीनार पर खुला छोड़ देने के रूप में
उसको परिवर्तित कर लिया है। किंतु उस मीनार के स्वयं नाम (दरम) का ही अर्थ है
एक दाह-स्थान, जिससे प्रकट है कि पुरातन काल में वे भी अपने शवों का दाह करते
थे। दूसरी विशेषता यह है कि आर्यों में इन प्रतिरूपों के प्रति कभी भय का
तत्त्व नहीं रहा। वे आहार या सहायता मांगने के निमित्त नीचे नहीं आते, और न
सहायता न मिलने पर क्रूर हो उठते हैं और न वे जीवित लोगों का विनाश ही करते
हैं। वरन् वे हर्षयुक्त होते हैं और स्वतंत्र हो जाने के कारण प्रसन्न। चिता
की अग्नि विघटन की प्रतीक है। इस प्रतीक से कहा जाता है कि वह अपगत आत्मा को
कोमलता से ऊपर ले जाए और उस स्थान में ले जाए, जहाँ पितर निवास करते हैं,
इत्यादि।
ये दोनों धारणाएँ हमें तत्काल ही एक समान प्रतीत होती हैं--एक आशावादी है और
दूसरी प्रारंभिक होने के साथ निराशावादी। पहली दूसरी का ही प्रस्फुटन है। यह
नितांत संभव है कि अत्यंत प्राचीन काल में स्वयं आर्य भी ठीक मिस्रियों जैसी
धारणा रखते थे, या रखते रहे हों। उनके पुरातनतम आलेखनों के अध्ययन से हमें इसी
धारणा की संभावना उपलब्ध होती है। किंतु यह पर्याप्त दीप्तिमान वस्तु होती है,
कोई दीप्तिमान वस्तु। मनुष्य के मरने पर यह आत्मा पितरों के साथ निवास करने
चली जाती है और उनके सुख का रसास्वादन करती आत्मा का स्वरूप और लक्ष्य हुई
वहाँ जीती रहती है। वे पितर उसका स्वागत बड़ी दयालुता से करते हैं। भारत में
आत्मा विषयक इस प्रकार की धारणा प्राचीनतम है। आगे चलकर यह धारणा उत्तरोत्तर
उच्च होती जाती है। तब यह ज्ञात हुआ कि जिसे पहले आत्मा कहा जाता था, वह
वस्तुतः आत्मा है ही नहीं। यह द्युतिमय देह, सूक्ष्म देह, कितनी ही सूक्ष्म
क्यों न हो, फिर भी है शरीरही; और सभी देहों का स्थूल या सूक्ष्म पदार्थों से
निर्मित होना अनिवार्य है। रूप और आकार से युक्त जो भी है, उसका सीमित होना
अनिवार्य है और वह नित्य नहीं हो सकता। प्रत्येक आकार में परिवर्तन अंतर्निहित
है। जो परिवर्तनशील है, वह नित्य कैसे हो सकता है ? अतः इस द्युतिमय देह के
पीछे उनको एक वस्तु मानो ऐसी मिल गई, जो मनुष्य की आत्मा है। उसको आत्मा की
संज्ञा मिली। यह आत्मा की धारणा तभी आरंभ हुई। उसमें भी विविध परिवर्तन हुए।
कुछ लोगों का विचार था कि यह आत्मा नित्य है; बहुत ही सूक्ष्म है, लगभग उतनी
ही सूक्ष्म जितना एक परमाणु; वह शरीर के एक अंग विशेष में निवास करती है, और
मनुष्य के मरने पर अपने साथ द्युतिमय देह को लिये यह आत्मा प्रस्थान कर जाती
है। कुछ लोग ऐसे भी थे, जो उसी आधार पर आत्मा के परमाणविक स्वरूप को अस्वीकार
करते थे, जिससे प्रेरित होकर उन्होंने इस द्युतिमय देह को आत्मा मानना
अस्वीकार किया था।
इन सभी विभिन्न मतों से सांख्य दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ, जिसमें हमें तत्काल
ही विशाल विभेद मिलते हैं। उसकी धारणा यह है कि मनुष्य के पास पहले तो यह
स्थूल शरीर है; स्थूल शरीर के पीछे सूक्ष्म शरीर है, जो मन का यान जैसा है। और
उसके भी पीछे--जैसा कि सांख्यवादी उसे कहते हैं--मन का साक्षी आत्मा या पुरुष
है; और यह सर्वव्यापक है। अर्थात, तुम्हारी आत्मा, मेरी आत्मा, प्रत्येक
व्यक्ति की आत्मा, एक ही समय में सर्वत्र विद्यमान है। यदि वह निराकार है, तो
कैसे माना जा सकता है कि वह देश में व्याप्त है ? देश को व्याप्त करनेवाली हर
वस्तु का आकार होता है। निराकार केवल अनंत ही हो सकता है। अतः प्रत्येक आत्मा
सर्वत्र है। जो एक अन्य सिद्धांत प्रस्तुत किया गया, वह और भी अधिक आश्चर्यजनक
है। प्राचीन काल में यह सभी अनुभव करते थे कि मानव प्राणी उन्नतिशील हैं, कम
से कम उनमें बहुत से तो हैं ही। पवित्रता, शक्ति और ज्ञान में वे बढ़ते ही
जाते हैं; और तब यह प्रश्न किया गया : मनुष्यों द्वारा अभिव्यक्त यह ज्ञान, यह
पवित्रता, यह शक्ति कहाँ से आए हैं ? उदाहरणार्थ, यहाँ किसी भी ज्ञान से रहित
एक शिशु है। वहीं शिशु बढ़ता है और एक बलिष्ठ, शक्तिशाली और ज्ञानी मनुष्य हो
जाता है। उस शिशु को ज्ञान और शक्ति की अपनी यह संपदा कहाँ से प्राप्त हुई ?
उत्तर मिला कि वह आत्मा में है; शिशु की आत्मा में यह ज्ञान और शक्ति आरंभ से
ही थे। यह शक्ति, यह पवित्रता और यह बल उस आत्मा में थे, किंतु वे थे अव्यक्त,
अब वे व्यक्त हो उठे हैं। इस व्यक्त या अव्यक्त होने का अर्थ क्या है ? जैसा
कि सांख्य में कहा जाता है, प्रत्येक आत्मा शुद्ध और पूर्ण, सर्वशक्तिमान और
सर्वज्ञ है; किंतु बाह्यतया वह स्वयं को केवल अपने मन के अनुरूप ही व्यक्त कर
सकती है। मन आत्मा का प्रतिबिंबक दर्पण जैसा है। मेरा मन एक निश्चित सीमा तक
मेरी आत्मा की शक्तियों को प्रतिबिंब करता है। इसी प्रकार तुम्हारा मन और हर
किसी का मन अपनी शक्तियों को करता है। जो दर्पण अधिक निर्मल होता है, वह आत्मा
को अधिक अच्छी तरह प्रतिबिंब करता है। अतः आत्मा की अभिव्यक्ति मन के अनुरूप
विविधतामय होती है। किंतु आत्माएँ स्वरूपतः शुद्ध और पूर्ण होती हैं।
एक दूसरा संप्रदाय भी था, जिसका मत यह था कि यह सब ऐसा नहीं हो 'सकता। यद्यपि
आत्माएँ स्वरूपतः शुद्ध और पूर्ण हैं, उनकी यह शुद्धता और पूर्णता, जैसा कि
लोगों ने कहा है, कभी संकुचित और कभी प्रसृत हो जाती है। कतिपय कर्म और कतिपय
विचार ऐसे हैं, जो आत्मा के स्वरूप को संकुचित जैसा कर देते हैं; और फिर ऐसे
भी विचार और कर्म हैं, जो उसके स्वरूप को प्रकट करते हैं, व्यक्त करते हैं।
फिर इसकी व्याख्या की गई है। ऐसे सभी विचार और कर्म जो आत्मा की पवित्रता और
शक्ति को संकुचित कर देते हैं, अशुभ कर्म और अशुभ विचार हैं; और वे सभी विचार
एवं कर्म जो स्वयं को व्यक्त करने में आत्मा को सहायता देते, शक्तियों को
प्रकट जैसा होने देते हैं, शुभ और नैतिक हैं। इन दो सिद्धांतों में अंतर
अत्यंत अल्प है; वह कम वेश प्रसारण और संकुचन शब्दों का खेल है। वह मत जो
विविधता को केवल आत्मा के उपलब्ध मन पर निर्भर मानता है, निस्सन्देह अधिक
उत्तम व्याख्या है। लेकिन संकुचन और प्रसारण का सिद्धांत इन दो शब्दों की शरण
लेना चाहता है; उनसे पूछा जाना चाहिए कि संकुचन और प्रसारण का अर्थ क्या है ?
आत्मा एक निराकार चेतन वस्तु है। प्रसार और संकोच का क्या अर्थ है, यह प्रश्न
तुम किसी सामग्री के संबंध में ही कर सकते हो, चाहे वह स्थूल हो जिसे हम भौतिक
द्रव्य कहते हैं, चाहे वह सूक्ष्म, मन, हो; किंतु इसके परे, यदि वह देश--काल
से आबद्ध भौतिक द्रव्य नहीं है, उसको लेकर प्रसार और संकोच शब्दों की व्याख्या
कैसे की जा सकती है ? अतएव यह सिद्धांत जो मानता है कि आत्मा सर्वदा शुद्ध और
पूर्ण है, केवल उसका स्वरूप कुछ मनों में अधिक और कुछ में कम प्रतिबिंब होता
है, अधिक उत्तम प्रतीत होता है। जैसे-जैसे मन परिवर्तित होता है, उसका रूप
विकसित एवं अधिकाधिक निर्मल सा होता जाता है और वह आत्मा का अधिक उत्तम
प्रतिबिंब देने लगता है। यह इसी प्रकार चलता रहता है और अंततः वह इतना शुद्ध
हो जाता है कि वह आत्मा के गुण का पूर्ण प्रतिबिंबन कर सकता है; तब आत्मा
मुक्त हो जाती है।
यही आत्मा का स्वरूप है। उसका लक्ष्य क्या है ? भारत में सभी विभिन्न
संप्रदायों में आत्मा का लक्ष्य एक ही प्रतीत होता है। उन सबमें एक ही धारणा
मिलती है और वह है मुक्ति की। मनुष्य असीम है; किंतु अभी जिस सीमा में उसका
अस्तित्व है, वह उसका स्वरूप नहीं है। किंतु इन सीमाओं के मध्य, वह अनंत,
असीम, अपने जन्मसिद्ध अधिकार, अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेने तक, आगे और ऊपर
बढ़ने के निमित्त संघर्ष कर रहा है। हम अपने आसपास जो इन सब संघातों और
पुनर्संघातों तथा अभिव्यक्तियों को देखते हैं, वे लक्ष्य या उद्देश्य नहीं
हैं, वरन् वे मात्र प्रासंगिक और गौण हैं। पृथ्वियों और सूर्यो, चन्द्रों और
नक्षत्रों, उचित और अनुचित, शुभ और अशुभ, हमारे हास्य और अश्रु, हमारे हर्ष और
शोक जैसे संघात उन अनुभवों को प्राप्त करने में हमारी सहायता के लिए हैं,
जिनके माध्यम से आत्मा अपने परिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त करती और सीमितता को
निकाल बाहर करती है। तब वह बाह्य या आंतरिक प्रकृति के नियमों से बँधी नहीं रह
जाती। तब वह समस्त नियमों, समस्त सीमाओं, समस्त प्रकृति के परे चली जाती है।
प्रकृति आत्मा के नियंत्रण के अधीन हो जाती है; और जैसा वह अभी मानती है,
आत्मा प्रकृति के नियंत्रण के अधीन नहीं रह जाती। आत्मा का यही एक लक्ष्य है;
और उस लक्ष्य--मुक्ति--को प्राप्त करने में वह जिन समस्त क्रमागत सोपानों में
व्यक्त होती तथा जिन समस्त अनुभवों के मध्य गुजरती है, वे सब उसके जन्म माने
जाते हैं। आत्मा एक निम्नतर देह धारण करके उसके माध्यम से अपने को व्यक्त करने
का प्रयास जैसा करती है। वह उसको अपर्याप्त पाती है, उसे त्यागकर एक उच्चतर
देह धारण करती है। उसके द्वारा वह अपने को व्यक्त करने का प्रयत्न करती है। वह
भी अपर्याप्त पायी जाने पर त्याग दी जाती है और एक उच्चतर देह आ जाती है। इसी
प्रकार यह क्रम एक ऐसा शरीर प्राप्त हो जाने तक निरंतर चलता रहता है, जिसके
द्वारा आत्मा अपनी सर्वोच्च महत्त्वाकांक्षाओं को व्यक्त करने में समर्थ हो
पाती है। तब आत्मा मुक्त हो जाती है।
अब प्रश्न यह है कि यदि आत्मा अनंत और सर्वत्र अस्तित्वमान है, जैसा कि
निराकार चेतन वस्तु होने के कारण उसे होना ही चाहिए, तो उसके द्वारा विविध
देहों को धारण करने तथा एक के बाद दूसरी देह में होकर गुज़रते रहने का अर्थ
क्या है ? भाव यह है कि आत्मा न जाती है, न आती है, न जन्मती है, न मरती है।
जो सर्वव्यापी है, उसका जन्म कैसे हो सकता है ? आत्मा शरीर में रहती है, यह
कहना निरर्थक प्रलाप है। अजीम एक सीमित देश में किस प्रकार निवास कर सकता है ?
किंतु जैसे मनुष्य अपने हाथ में पुस्तक लेकर एक पृष्ठ पढ़कर उसे उलट देता है,
दूसरे पृष्ठ पर जाता है, पढ़कर उसे उलट देता है, आदि; किंतु ऐसा होने में
पुस्तक उलटी जा रही है, पन्ने उलट रहे हैं, मनुष्य नहीं--वह सदा वहीं विद्यमान
रहता है, जहाँ वह है--और ऐसा ही आत्मा के संबंध में सत्य है। संपूर्ण प्रकृति
ही वह पुस्तक है, जिसे आत्मा पढ़ रही है। प्रत्येक जन्म उस पुस्तक का एक पृष्ठ
जैसा है; पढ़ा जा चुकने पर वह पलट दिया जाता है, और यही क्रम संपूर्ण पुस्तक
के समाप्त होने तक चलता रहता है, और आत्मा प्रकृति का संपूर्ण भोग प्राप्त
करके पूर्ण हो जाती है। फिर भी न वह कभी चलती है, न कहीं जाती, न आती है; वह
केवल अनुभवों का संचय करती रहती है। किंतु हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हम
गतिशील रहे हों। पृथ्वी गतिशील है, तथापि हम सोचते हैं कि पृथ्वी के बजाए
सूर्य चल रहा है, और हम जानते हैं कि यह भूल है, ज्ञानेंद्रियों का एक भ्रम
है। इसी प्रकार का भ्रम यह है कि हम जन्म लेते हैं और मरते हैं, हम आते हैं,
जाते हैं। न हम आते हैं, न जाते हैं, और न हम जन्मे ही हैं। क्योंकि आत्मा को
जाना कहाँ है ? उसके जाने के लिए कोई स्थान ही नहीं है। कहाँ है वह स्थान,
जहाँ वह पहले से ही विद्यमान नहीं है ?
इस प्रकार प्रकृति के विकास और आत्मा की अभिव्यक्ति का सिद्धांत आ जाता है।
उच्चतर और उच्चतर संघातों से युक्त विकास की प्रक्रियाएँ आत्मा में नहीं हैं;
वह जो कुछ है, पहले से ही है। वे प्रकृति में हैं। किंतु जैसे-जैसे प्रकृति का
विकास उत्तरोत्तर उच्चतर से उच्चतर संघातों की ओर अग्रसर होता है, आत्मा की
गरिमा अपने को अधिकाधिक व्यक्त करती है। कल्पना करो कि यहाँ एक पर्दा है, और
पर्दे के पीछे आश्चर्यजनक दृश्यावली है। पर्दे में एक छोटा सा छेद है, जिसके
द्वारा हम पीछे स्थित दृश्य के एक क्षुद्र अंशमात्र की झलक पा सकते हैं।
कल्पना करो कि वह छेद आकार में बढ़ता जाता है। छेद के आकार में वृद्धि के साथ
पीछे स्थित दृश्य दृष्टि के क्षेत्र में अधिकाधिक आता है; और जब पूरा पर्दा
विलुप्त हो जाता है, तो तुम्हारे तथा उस दृश्य के मध्य कुछ भी नहीं रह जाता;
तब तुम उसे संपूर्ण देख सकते हो। पर्दा मनुष्य का मन है। उसके पीछे आत्मा की
गरिमा, पूर्णता और अनंत शक्ति है; जैसे जैसे मन उत्तरोत्तर अधिकाधिक निर्मल
होता जाता है, आत्मा की गरिमा भी स्वयं को अधिकाधिक व्यक्त करती है। ऐसा नहीं
है कि आत्मा परिवर्तित होती है, वरन् परिवर्तन पर्दे में होता है। आत्मा
अपरिवर्तनशील वस्तु, अमर, शुद्ध, सदा मंगलमय है।
अतएव, अंततः सिद्धांत का रूप यह ठहरता है। उच्चतम से लेकर निम्न तम और दुष्टतम
मनुष्य तक में, मनुष्यों में महानतम व्यक्तियों से लेकर हमारे पैरों के नीचे
रेंगनेवाले कीड़ों तक में शुद्ध और पूर्ण, अनंत और सदा मंगलमय आत्मा विद्यमान
है। कीड़े में आत्मा अपनी शक्ति और शुद्धता का एक अणुतुल्य क्षुद्र अंश ही
व्यक्त कर रही है और महानतम मनुष्य में उसका सर्वाधिक। अंतर अभिव्यक्ति के
परिमाण का है, मूल तत्त्व में नहीं। सभी प्राणियों में उसी शुद्ध और पूर्ण
आत्मा का अस्तित्व है।
स्वर्ग तथा अन्य स्थानों से संबंधित धारणाएँ भी हैं, किंतु उन्हें द्वितीय
श्रेणी का माना जाता है। स्वर्ग की धारणा को निम्नस्तरीय माना जाता है। उसका
उद्भव भोग की एक स्थिति पाने की इच्छा से होता है। हम मूर्खतावश समग्र विश्व
को अपने वर्तमान अनुभव से सीमित कर देना चाहते हैं। बच्चे सोचते हैं कि सारा
विश्व बच्चों से ही भरा है। पागल समझते हैं कि सारा विश्व एक पागलखाना है, इसी
तरह अन्य लोग। इसी प्रकार जिनके लिए यह जगत इंद्रिय संबधी भोग मात्र है, खाना
और मौज उड़ाना ही जिनका समग्र जीवन है, जिनमें तथा नृशंस पशुओं में बहुत कम
अंतर है, ऐसे लोगों के लिए किसी ऐसे स्थान की कल्पना करना स्वाभाविक है, जहाँ
उन्हें और अधिक भोग प्राप्त होंगे, क्योंकि यह जीवन छोटा है। भोग के लिए उनकी
इच्छा असीम है। अतएव वे ऐसे स्थानों की कल्पना करने के लिए विवश हैं, जहाँ
उन्हें इंद्रियों का अबाध भोग प्राप्त हो सकेगा; फिर जैसे हम और आगे बढ़ते
हैं, हम देखते हैं कि जो ऐसे स्थानों को जाना चाहते हैं, उन्हें जाना ही होगा;
वे उसका स्वप्न देखेंगे, और जब इस स्वप्न का अंत होगा, तो वे एक दूसरे स्वप्न
में होंगे जिसमें भोग प्रचुर मात्रा में होगा; और जब वह सपना टूटेगा तो उन्हें
किसी अन्य वस्तु की बात सोचनी पड़ेगी। इस प्रकार वे सदा एक स्वप्न से दूसरे
स्वप्न की ओर भागते रहेंगे।
इसके उपरान्त अंतिम सिद्धांत आता है, जो आत्मा विषयक एक और धारणा है। यदि
आत्मा अपने स्वरूप और सारतत्त्व में शुद्ध और पूर्ण है, और यदि प्रत्येक आत्मा
असीम एवं सर्वव्यापी है, तो अनेक आत्माओं का होना कैसे संभव है ? असीम बहुत से
नहीं हो सकते। बहुतों की बात ही क्या, दो तक भी नहीं हो सकते। यदि दो असीम
हों, तो एक दूसरे को सीमित कर देगा, और दोनों ही ससीम हो जाएंगे। असीम केवल एक
ही हो सकता है और साहसपूर्वक इस निष्कर्ष पर पहुँचा जाता है कि वह केवल एक है,
दो नहीं।
दो पक्षी एक ही वृक्ष पर बैठे हैं, एक चोटी पर, दूसरा नीचे; दोनों ही अत्यंत
सुंदर पंखोंवाले हैं। एक फलों को खाता है, दूसरा शांत और गरिमामय तथा अपनी
महिमा में समाहित रहता है। नीचेवाला पक्षी अच्छे-बुरे फल खा रहा है और इंद्रिय
सुखों का पीछा कर रहा है; यदाकदा जब वह कोई कडुआ फल खा लेता है, तो ऊँचे चढ़
जाता है और ऊपर देखता है कि दूसरा पक्षी वहाँ शांत और गरिमान्वित बैठा है, न
उसे अच्छे फलों की चिंता है, न बुरों की, स्वयं में संतुष्ट है और वह अपने से
परे किसी अन्य भोग को नहीं खोजता। वह स्वयं ही भोगस्वरूप है, अपने से परे वह
क्या खोजे ? नीचेवाला पक्षी ऊपरवाले की ओर देखता और उसके निकट पहुँचना चाहता
है। वह किंचित् ऊपर बढ़ता है, किंतु उसके पुराने संस्कार उस पर असर डालते हैं
और वह तब भी उन्हीं फलों को खाता रहता है। फिर कोई विशेष कड़आ फल आता है, उसे
एक आघात लगता है और वह ऊपर देखता है। वहाँ वही शांत और महिमामण्डित पक्षी
विद्यमान है ! वह निकट आता है, किंतु प्रारब्ध कर्मों द्वारा फिर नीचे घसीट
लिया जाता है और वह कड़ुए मीठे फलों को खाता रहता है। पुनः असाधारण रूप से
कडुआ फल आता है, पक्षी ऊपर देखता है, निकटतर आता है; और जैसे जैसे अधिकाधिक
निकट आता है, दूसरे पक्षी के पंखों का प्रकाश उसके ऊपर प्रतिबिंब होने लगता
है। उसके अपने पंख गलने लगते हैं, और जब वह पर्याप्त निकट आ जाता है, तो सारी
दृष्टि बदल जाती है। नीचेवाले पक्षी का तो कभी अस्तित्व ही नहीं था, वह सदैव
ऊपरवाला पक्षी ही था, जिसे वह नीचेवाला पक्षी समझा था, वह प्रतिबिंब का एक लघु
अंशमात्र था।
ऐसा आत्मा का स्वरूप है। यह जीवात्मा इंद्रिय संबधी सुखों और जगत की
निस्सारताओं के पीछे भागती है; पशुओं की भाँति वह केवल इंद्रियों में ही जीती
है, नाड़ियों की क्षणिक गुदगुदी में जीती चली जाती है। जब कभी एक आघात लगता
है, तो क्षण भर को सिर चकरा जाता है, हर वस्तु विलुप्त होती सी लगती है, और
उसे लगता है कि जगत वह नहीं है, जिसे वह समझे बैठी थी, और जीवन ऐसा
निर्द्वन्द्व नहीं है। वह ऊपर देखती है और एक क्षण में असीम प्रभु का दर्शन
पाती है, महामहिम की एक झलक मिलती है, थोड़ा और निकट आती है, किंतु अपने
प्रारब्ध द्वारा घसीट ली जाती है। एक और आघात लगता है, और उसे पुनः वापस भेज
देता है। उसे असीम सर्वव्याप्त सत्ता की एक झलक और मिलती है, वह निकटतर आती
है, और जैसे जैसे वह निकटतर आती जाती है, उसको अनुभव होने लगता है कि उसका
व्यक्तित्व-उसका निम्न, कुत्सित उत्कटस्वार्थी व्यक्तित्व--गल रहा है; उस
तुच्छ वस्तु को सुखी बनाने के लिए सारे संसार को बलि कर देने की इच्छा गल रही
है; और जैसे वह शनैः शनैः निकटतर आती जाती है, प्रकृति गलना आरंभ कर देती है।
पर्याप्त निकट आ चुकने पर, सारी दृष्टि बदल जाती है और उसे अनुभव होता है कि
वह दूसरा पक्षी थी, जिस असीम को उसने दूर से देखा था वह स्वयं उसकी अपनी आत्मा
थी, महिमा और गरिमा की जो आश्चर्य-जनक झलक उसे मिली, वह उसकी ही आत्मा थी, और
वस्तुतः वह सत्य वह स्वयं थी। आत्मा को तब वह प्राप्त होता है, जो हर वस्तु
में सत्य है। वह जो हर अणु में है, सर्वत्र विद्यमान, सभी वस्तुओं का
सारतत्त्व, इस विश्व का ईश्वर है--जान ले कि तत्त्वमसि--तू
वह है, जान ले कि तू मुक्त है।
जीवात्मा एवं परमात्मा
[8]
हमें इस बात पर विवाद करने की आवश्यकता नहीं है कि मनुष्य को अपने से
श्रेष्ठतर शक्तियों के विषय में सोचने की प्रेरणा भय से मिली या केवल जिज्ञासा
से।. . .इनसे उनके मन में विशिष्ट पूजा-पाठ आदि की प्रवृत्ति जगी। (मानव जाति
के इतिहास में) ऐसा कोई समय नहीं रहा, जब पूजा-संबंधी (कोई आदर्श) न रहा हो।
ऐसा क्यों है ? दृश्य जगत--वह चाहे सुनहला प्रभात हो या भूत-प्रेतों का भय--के
परे कुछ पा लेने की लगन का रहस्य क्या है ? . . . प्रागैतिहासिक युगों में
जाने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि दो हजार साल पहले जो प्रवृत्ति थी, वही आज
भी है। हमें यहाँ संतोष प्राप्त नहीं होता। जीवन में हमारी स्थिति कुछ भी
क्यों न हो--बलशाली, धनी हमें संतोष नहीं मिलता ।
कामना असीम है। उसकी तृप्ति सीमित है। मानवीय कामनाओं का अंत नहीं है, लेकिन
उनकी पूर्ति की चेष्टा करते ही मुसीबतें आ जाती हैं। अविकसित मानवों का भी यही
हाल था, उनकी इच्छाएँ भले ही कम रही हों। उनकी भी (इच्छाएँ) पूरी नहीं हो पाती
थीं। और ज्ञान-विज्ञान तथा कलाओं के उत्तरोत्तर विकास के इस युग में (भी)
इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं। दूसरी ओर हम इच्छाएँ पूरी करने के लिए साधन
बढ़ाने में जुटे हैं, और इच्छाएँ बढ़ती ही जा रही हैं।. . .
आदि मानव ने अपने से न हो सकनेवाले कामों में सहज ही बाहरी मदद की आशा की
होगी।. . . उसकी कोई चाह हुई, वह पूरी न हो सकी।--तब वह अलौकिक शक्ति की शरण
में गया। मूर्खातिमूर्ख आदि मानव तथा सभ्य से सभ्य आधुनिक मानव इन दोनों का
अपनी अपनी इष्टसिद्धि के लिए ईश्वर से प्रार्थना करना इस प्रवृत्ति का सूचक
है। दोनों में कोई अंतर है ? (कुछ लोग) तो दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर
देखते हैं। जहाँ कोई भी अंतर नहीं होता, वहीं हम हद से ज्यादा अंतर देखा करने
के आदी हैं। (असभ्य तथा सभ्य) दोनों एक ही (शक्ति) से याचना करते हैं। तुम उसे
ईश्वर, अल्लाह, जेहोवा आदि जो भी नाम दो। मानव कुछ चाहते हैं। उसकी प्राप्ति
उनके सामर्थ्य में नहीं होती। उसे पाने के लिए ही किसी सहायक की तलाश में लगे
हैं। यह आदिम जातियों की विशेषता थी और सभ्यातिसभ्य समाज की भी विशेषता है।. .
. हम जन्म से जंगली हैं, क्रमशः सभ्य होते आए हैं।. . . हम सब अपने अपने दिल
टटोलकर देखें तो सचाई मालूम हो जाएगी। आज भी वह डर हमसे छूटा नहीं। हम
लंबी-चौड़ी हाँक भले ही लें, दार्शनिक आदि होने का दंभ भरें, लेकिन जब आघात
लगता है, तो मदद के लिए हम हाथ पसारनेवाले हो जाते हैं। हम संसार के सभी
अंधविश्वासों में आस्था रखते हैं। (किंतु) संसार का कोई अंधविश्वास ऐसा नहीं
है, (जिसमें कोई आधारित सत्य नहीं)। मैं अपना चेहरा ढक लूं और (नाक) की नोक ही
बाहर रह जाए, फिर भी वह मेरे चेहरे का ही हिस्सा रहती है। यही बात
अंधविश्वासों (के बारे में) भी है--उनमें कुछ न कुछ सचाई होती ही है।
अब देखो, धर्म का निम्नतम रूप मृतकों की अंत्यक्रिया में मिलता है।. . . आरंभ
में कफन में शव लपेटे जाते और ढूहों के नीचे बंद रखे जाते थे। ऐसा माना जाता
था कि मृतात्माएँ (रात के समय ढूहों में) लौट आया करती हैं. . . पीछे उन्हें
दफनाना शुरू किया गया. . . फाटक पर हज़ार दाँतोंवाली भीमदर्शना देवी की कल्पना
हुई. . . बाद को शव की दाह-क्रिया होने लगी और चिता की लपटें आत्मा को ऊपर ले
जाने वाली मानी गयीं. . . मिस्र देशवासी मृतात्मा के लिए खान-पान की भी
व्यवस्था करने लगे।
विचार में महत्त्वपूर्ण विकास यूथीय या कबीली देवताओं के जन्म के साथ हुआ। एक
कबीले का देवता कोई, तो दूसरे का कोई और होता। यहूदी देवता जेहोवा था, जो
दूसरे कबीलों के देवताओं से जूझता था। अपने कबीलेवालों को खुश करने के लिए वह
सब कुछ कर सकता था। अपने संरक्षण के बाहर किसी समूचे कबीले की हत्या कर डालना
शुभ और उचित था। थोड़ा प्यार भी उनसे मिलता, लेकिन वह चुने हुओं तक ही सीमित
रहता।
शनैः शनैः उच्चतर आदर्शों का आविर्भाव हुआ। विजयी क़बीले का सरदार, सरदारों का
सरदार हुआ, देवताओं का देवता बना।. . . ईरान की मिस्र पर हुई विजय से इसका
श्री गणेश हुआ। ईरान का सम्राट् (राजाधिराज) बना, उसके सामने कोई खड़ा नहीं हो
सकता था। उसे एक नज़र देख लेनेवाले को मौत की सजा होती थी।
पीछे सर्वेश्वर सर्वशक्तिमान ईश्वर की कल्पना हुई। वह विश्व-विधायक,
सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापी ठहराया गया। स्वर्ग उसका निवासस्थान हुआ। मानव के
लिए सब कुछ सुलभ बनानेवाले इस परमप्रिय की विशेष स्तुति होने लगी। निखिल
सृष्टि (मानव) के लिए है। सूर्य, चंद्रमा, नक्षत्र आदि (उसी के) लिए हैं। जो
भी ऐसे विचारवाले हैं, वे आदि मानवों में गिने जाएंगे; सभ्यों या सुसंस्कृतों
में नहीं। उत्तम माने गए सभी धर्मों का विकास गंगा और फरात के मध्य हुआ है।. .
.भारतवर्ष से बाहर हम (स्वर्गस्थ ईश्वर की कल्पना के आगे धर्म का) कोई विकास
नहीं देखते। भारत से बाहर अन्यत्र ईश्वर संबंधी वही सर्वोच्च उपलब्धि थी। एक
कल्पित स्वर्ग है; ईश्वर का वहाँ आवास है; उन पर श्रद्धा रखनेवाले देहत्याग के
बाद (वहीं) पहुँचते हैं।. . .अफ्रीका का मंबो-जंबो (और) स्वर्ग का ईश्वर दोनों
बराबर। वह सृष्टि-संचालक है और जगत का व्यापार सर्वत्र उसकी इच्छा के अनुसार
हो रहा है. . .
प्राचीन यहूदी किसी स्वर्ग के लिए लालायित नहीं थे। नज़रत के ईसा का उन्होंने
जो (विरोध) किया, उसका यह भी एक कारण है। क्योंकि ईसा ने मृत्यु के बाद भी जीव
की नित्यता का प्रचार किया था। संस्कृत भाषा में 'स्वर्ग' का अर्थ 'इस लोक से
परे स्थित, परलोक' है। तो इस पाप का निवारण स्वर्ग को करना पड़ा। आदि मानव पाप
(की) कोई चिंता नहीं करता था . . . उसमें यह जिज्ञासा ही न हुई कि पाप क्यों
है।. . . 'डेविल' (शैतान) शब्द ईरानी भाषा का है। . . . धार्मिक चिंतन में
(आर्यकुल) के होने के नाते ईरानी और हिंदू समानधर्मा हैं। . . . भाषाएँ दोनों
की एक ही परिवार की हैं। लेकिन एक संप्रदाय के लिए जो शब्द मंगलवाचक है, वही
दूसरे के लिए अमंगलवाचक हो गया है। ईश्वर के लिए प्राचीन संस्कृत का शब्द है
'देव'। आर्य भाषाओं का 'गॉड' भी तो उसीका पर्याय है। ईरानी में यही शैतान का
वाचक है. . .
मानव ज्यों-ज्यों (अंतःजीवन) में प्रगति करता गया, त्यों त्यों उसकी जिज्ञासा
तीव्र होती गई। ईश्वर को 'शिव' कहना भी उसे अखरने लगा। ईरानियों ने इसे व्यक्त
किया और दो ईश्वर माने--अशिव (अर्हिमन) तथा शिव (अहुर्मज्द)। (उनका विचार था)
कि इस लोक में पहले सब कुछ अच्छा ही अच्छा था : रमणीय देश जहाँ वर्ष भर वसंत
की बहार रहती थी और कोई मरता नहीं था, कोई रोग नहीं था; सब कुछ सुंदर था। यहाँ
शैतान के पैर पड़े और साथ ही मृत्यु, रोग, मच्छर, बाघ, शेर आदि दिखायी पड़े।
बाद में आर्य अपनी पितृ-भूमि से निकले. और दक्षिण की ओर बढ़े। आर्यों के
पूर्वज उत्तर की ओर ही रहते होंगे। यहूदियों ने (शैतान की कल्पना) इरानियों से
ग्रहण की। ईरानियों ने यह भी सिखाया था कि एक दिन यह शैतान मारा जाएगा। इसलिए
हमारा कर्तव्य है कि हम शुभकारी ईश्वर के साथ रहें और शैतान तथा उसके मध्य
चलनेवाले इस चिरंतन संघर्ष में उसकी शक्ति को अपनी शक्ति से पुष्ट करें।. .
.सारी दुनिया राख हो जाएगी और हर एक को नया शरीर मिलेगा।
ईरानी विचारधारा के अनुसार दुरात्मा भी पवित्र हो जाएंगे और फिर कभी कुपथगामी
नहीं होंगे। आर्यों की प्रवृत्ति प्रेममय और काव्यात्मक थी। (सदा के लिए) राख
हो जाने की कल्पना वे नहीं कर सकते थे। फिर नयी देह प्राप्त होगी। फिर मृत्यु
का कोई बंधन नहीं। भारत के बाहर (धार्मिक) आदर्शों की यही सर्वोच्च परिणति
है।. . .
इसीके साथ नैतिकता का भी सूत्र है। मनुष्य को तीन बातों की ओर ध्यान देना
चाहिए--सत्-विचार, सत्-वाणी और सत्-कर्म। बस इतना ही। यह व्यावहारिक
विवेकसम्मत धर्म है। यहीं कविता का थोड़ा सा आभास मिलने लगता है। लेकिन इससे
भी ऊँची कविता है, ऊँचा चिंतन है।
भारत में वेदों के प्राचीनतम भागों में इस शैतान (असुर वृत्र) के दर्शन होते
हैं। वह अचानक (प्रकट) होता है और झट अदृश्य हो जाता है।. . . वेदों में वर्णन
है कि असुर पर वज्रपात हुआ और वह भागा। जो वहाँ से भागा तो ईरानियों ने उसे रख
लिया। हम इस दुनिया से ही उसे निकल जाने देने के प्रयत्न में लगे हैं।
ईरानियों के आदर्श पर हम उसे एक सज्जन व्यक्ति बनाना चाह रहे हैं, उसे नया
आकार देना चाहते हैं। भारत में शैतान का अस्तित्व ही लुप्त हो गया।
लेकिन ईश्वर की कल्पना सजीव रही। यहीं, याद रखो, दूसरी बात आ गई। ईरानी सम्राट
तक खोजे हुए सूत्र के अनुरूप ईश्वर की कल्पना भी (भोगपरायणता) के साथ साथ
पनपी। साथ ही तत्त्वज्ञान, दर्शन का आरंभ हुआ। एक तीसरी भी विचारधारा है और वह
है (मनुष्य की) अपनी आत्मा, (अद्वैत आत्मा) की। इसका भी विकास हुआ। अतः भारत
से बाहर ईश्वर-संबंधी कल्पना इस स्थूल स्तर के आगे, भारत से ही इस दिशा में
किंचित् प्रेरणा मिलने तक, न बढ़ सकी। . . . अन्य राष्ट्र उसी पुराने स्थूल
आदर्श पर रुक गए। इस (अमेरिका) में लाखों ऐसे हैं, जो ईश्वर को देही मानते
हैं।. . .संप्रदाय के संप्रदाय यही घोषणा करते हुए दिखायी पड़ते हैं। (उनका
विश्वास है कि) ईश्वर विश्व का शासन करता है, लेकिन कोई ऐसा स्थान है, जहाँ वह
सशरीर विद्यमान है। वह सिंहासन पर विराजमान है। मंदिरों में भारतीय जो
आरती-स्तुति करते हैं, वही ये लोग भी करते हैं।
किंतु भारतवासियों ने इस संबंध में अधिक बुद्धि से काम लिया, और उन्होंने
(अपने ईश्वर को एक भौतिक वस्तु) कभी नहीं बनाया। ब्रह्म के लिए भारत भर में
कोई मंदिर तुमको ढूँढ़े न मिलेगा। कारण स्पष्ट है। आत्मा की कल्पना सदैव बनी
रही। यहूदियों ने आत्मा की सत्ता के संबंध में कभी जिज्ञासा ही नहीं की।
प्राचीन व्यवस्थान (Old Testament) में आत्मा विषयक कोई उल्लेख नहीं मिलता। नव
व्यवस्थान (New Testament) में पहले-पहल इसका उल्लेख मिलता है। ईरानी इतने
व्यवहार कुशल थे--असाधारण चलते-पुरजे थे कि उनकी जाति ही लड़ाकू और विजेता बन
गई। वे बीते युग के अंग्रेज माने जा सकते हैं, जिनका काम ही हमेशा लड़ना और
पड़ोसियों को मिटाना हो गया। इस आपाधापी में आत्मा पर विचार असंभव हो गया।. .
.
आत्मा की प्राचीनतम कल्पना इस स्थूल शरीर में एक सूक्ष्म शरीर की थी। स्थूल के
अगोचर हो जाने पर सूक्ष्म गोचर होता है। मिस्र देश में सूक्ष्म शरीर का भी
निधन हो जाता है। स्थूल शरीर के बिखर जाने पर सूक्ष्म भी बिखर जाता है। यही
कारण है कि उन्होंने पिरामिडों का निर्माण किया और (अपने पुरखों के मृतशरीर को
आलेपवेष्टित किया और यह आशा की कि मरे हुए लोग इस क्रिया से अमरत्व प्राप्त
करेंगे)। . . .
भारत के निवासी निर्जीव शरीर की सेवा नहीं करते। (उनकी धारणा है) कि 'इसे ले
जाएं और फूंक दें।' पुत्र पिता के शरीर का दाह करता है. . .
दो प्रकार की जातियाँ हैं--दैवी संपदावाली और आसुरी संपदावाली। पहले का विचार
है कि वे स्वयं जीवात्मा तथा परमात्मा के स्वरूप हैं। दूसरे का विचार है कि वे
शरीरमात्र हैं। प्राचीन भारतीय तत्त्वचिंतकों ने जोर देकर कहा कि शरीर नश्वर
है। 'जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों का त्यागकर अन्य नवीन वस्त्रों को ग्रहण
करते हैं, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को (छोड़कर) अन्यान्य नवीन शरीरों
को प्राप्त करती है।'
[9]
जहाँ तक मेरा सवाल है, वातावरण एवं शिक्षा-दीक्षा के परिणाम से, मैं कुछ
विपरीत ही सोचने को विवश हुआ था। मेरा अधिक संपर्क ईसाई एवं मुसलमानों से रहा,
जो विशेषकर शरीर-सेवी होते हैं।. . .
(शरीर) तथा आत्मा के बीच एक ही सीढ़ी है।. . . (भारत में) आत्मा विषयक आदर्श
पर जोर दिया जाने लगा। हम लोगों के लिए यही आदर्श ईश्वरीय कल्पना का (पर्याय)
हो गया। . . .आत्मा की कल्पना का विस्तार होने पर (मनुष्य को स्वीकार करना
पड़ता है कि आत्मा नाम-रूप से परे है)। . . . भारतीय धारणा के अनुसार आत्मा
निराकार है। जो भी साकार है, वह कभी न कभी नष्ट होता ही है। शक्ति और जड़
द्रव्य के संघात के बिना कोई आकार नहीं हो सकता। इस संघात से गठित आकार का
विघटन भी अनिवार्य है। ऐसी दशा में, यदि तुम्हारी आत्मा नामरूपात्मक है, तो वह
विघटित होती है; अतः तुम्हारी मृत्यु होती है, तुम अमर नहीं रह जाते। (अगर) वह
सूक्ष्म शरीर है, तो भी (उसका आकार प्रकृति-जन्य) है, जन्म-मरण के प्राकृतिक
नियमों का अनुसरण करती है। उनका दृढ़ विश्वास था कि आत्मा मन भी नहीं है. . .
और न वह सूक्ष्म शरीर ही है।. . .
विचारों के निर्देशन और नियंत्रण संभव हैं।. . . (भारतीय योगियों ने) इस बात
का पता लगाने के लिए कि विचारों को कहाँ तक निर्देशित और नियंत्रित किया जा
सकता है, बड़ी साधना की। कठोर साधना से विचारों को पूर्णतया शांत किया जा सकता
है। यदि (मनुष्य) विचार ही होता, तो विचारों के शांत होने के साथ साथ उसे मर
जाना चाहिए था। ध्यानावस्था में विचार शांत हो जाते हैं, बुद्धि की वृत्तियाँ
भी बिल्कुल स्थिर हो जाती हैं, रक्त--संचार भी रुक जाता है। श्वास-प्रक्रिया
तक स्तब्ध हो जाती है। इतने पर भी वह मरता नहीं। यदि वह विचार मात्र ही है, तो
बाकी सब कुछ को नष्ट हो जाना चाहिए था, लेकिन देखते यह हैं कि जीव का नाश नहीं
होता। यह प्रयोगसिद्ध है। अतः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बुद्धि और विचार भी
जीव नहीं है। मनन-चिंतन से भी इसकी पुष्टि हुई, जीव बुद्धि-विचार नहीं हो
सकता।
मैं आता हूँ, सोचता हूँ और बोलता हूँ। इन सारे (क्रिया-कलापों) में (आत्मा का)
एकत्व बना रहता है। मेरे विचार और व्यापार बहुविध हैं. . . लेकिन उनमें और
उनके मध्य वह अपरिवर्तनीय अखंड आत्मा व्याप्त रहती है। वह शरीर नहीं हो सकता।
वह प्रतिपल बदलता रहता है। वह मन नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें नित्य नूतन
विचार आते रहते हैं। वह न शरीर है, न मन। शरीर और मन प्रकृति-जन्य हैं, इसलिए
प्रकृति नियमाधीन है। मुक्त मन कभी भी नियमाधीन नहीं हो सकता. . .
अतः वास्तविक मनुष्य प्रकृति का नहीं है। यह वह पुरुष है, जिसका शरीर और मन
दोनों प्रकृति के हैं। प्रकृति का उतना ही अंश हमारे लिए उपयोगी है। तुम जिस
प्रकार कलम, रोशनाई कुर्सी आदि काम में लाते हो, उसी प्रकार यह देही
स्थूल-सूक्ष्म रूप में प्रकृति का उपयोग करता है। स्थूल अंश है शरीर और
सूक्ष्म अंश है बुद्धि। अगर वह सहज है, तो उसे निराकार होना चाहिए। रूप
प्रकृति के ही होते हैं। जो प्रकृतिज नहीं है, उसका स्थूल-सूक्ष्म रूप नहीं हो
सकता। उसे निराकार और सर्वव्यापी होना चाहिए। यह ध्यान में रखने की बात है।
मेज पर रखा यह गिलास (लो)। मेज, गिलास ये दोनों साकार हैं। उनके टूटने-फूटने
पर उसका गिलासत्व, मेजत्व भी लुप्तप्राय हो जाता है. . .
आत्मा निराकार होने के कारण अनाम है। वह न स्वर्ग जाती है, न (नरक) ही, जैसे
वह इस गिलास में नहीं जाती आती। वह भरनेवाले पात्र का आकार ग्रहण करती है। वह
देश के बंधन से परे है, तो इन दोनों में से किसी एक बात की संभावना ही हो सकती
है। या तो (आत्मा) देश को (व्याप्त किए रहती है) या देश ही (उसमें) है। तुम
देश के बंधन में हो, अतः तुम्हारा आकार होना अनिवार्य है। देश हमको सीमित करता
है, बाधित करता है। तुम देश के बंधन में नहीं हो, तो देश ही तुममें है।
स्वर्गलोक और इहलोक दोनों सचेतन सत्ता में रहते हैं। . . .
इसलिए जीवात्मा का संबंध परमात्मा से ही होना चाहिए। परमात्मा शाश्वत है। 'वह
अपाणिपाद होकर भी सब कुछ ग्रहण करता है, सर्वत्र विचरता है'
[10]
. . .वह अरूप (है), अमर है, शाश्वत है। परमात्मा का तत्त्व-निरूपण हुआ।. .
.जीवात्मा जिस प्रकार शरीर का (प्रभु) है, उसी प्रकार परमात्मा जीवात्माओं का
प्रभु है। जीव शरीर से मुक्त हो जाए तो पल भर के लिए भी शरीर शरीर नहीं रह
पाता। परमात्मा जीवात्मा से अलिप्त हो जाए तो जीवात्मा की स्थिति ही नहीं रह
पाती। वह विश्वसृष्टि विधायक है, कालकवलित होने वालों के लिए महाकाल है।
मृत्यु तथा जीवन उसकी छायाएँ मात्र हैं।
(प्राचीन भारत के महामहिम मनीषियों) का मत था. . . यह जुगुप्साजनक संसार मानव
का मुख्य लक्ष्य न होना चाहिए। विश्व में (न शुभ ही चिरस्थायी है, न अशुभ ही).
. .
मैंने तुमसे पहले ही कहा. . .कि (भारत में) शैतान को कोई अवसर नहीं मिल पाया।
कारण स्पष्ट है। धर्म के विषय में भारतीय बड़े दृढ़ थे। उन्होंने बच्चों सा
खिलवाड़ नहीं किया। तुमको शिशु-सुलभ व्यापारों का परिचय होगा ही। बच्चे हमेशा
अपनी ज़िम्मेदारी दूसरों पर टालने की कोशिश करते रहते हैं। अविकसित बुद्धिवाले
कोई भूल हो जाने पर उसकी जिम्मेदारी दूसरों पर डाल देने की कोशिश में लगे रहते
हैं। एक ओर हमारी मांग है कि 'यह दो', 'वह दो' और दूसरी तरफ हमारा कहना है कि
'मैंने वैसा नहीं किया। शैतान ने ललचाया। उसी की यह करतूत है।' यह दुर्बल
मानवता का इतिहास है।
पाप क्यों है ? संसार जुगुप्साजनक गदा गड्ढा क्यों है? कोई ज़िम्मेदार नहीं।
हम जलती आग में हाथ बढ़ा दें। ईश्वर भला करे, (मानव) जिसका पात्र है वही (पाता
है)। ईश्वर असीम अनुकंपा का आकार है। प्रार्थना करने पर वह हमारी सुनता है,
सहायता करता है, स्वयं को हमारे हवाले कर देता है।
यही उनका आदर्श है। ये भाव काव्यात्मक सौंदर्य से सजे हुए हैं। भावमग्नता में
वे आवेशपूर्ण हो उठते हैं। उनका दर्शन काव्य है। यह दर्शन एक कविता है . . .
संस्कृत भाषा में समस्त (भव्य-भाव) काव्याभिव्यक्ति द्वारा प्रकट हुए हैं।
तत्त्ववाद, ज्योतिष आदि छंदोबद्ध हैं।
हम ज़िम्मेदार हैं, और हमसे अपराध होते कैसे हैं ? (तुम्हारी दलील हो सकती
है)--'मैं पैदा हुआ गरीब, इसलिए मुसीबत का मारा हूँ। मैं जिंदगी भर यह संघर्ष
याद रखूगा।' तत्त्वदर्शी कहेंगे कि दोष तुम्हारा है। तुम यह तो नहीं कह रहे हो
कि यह सारा प्रपंच अकारण खड़ा किया गया। तुम तो विचारशील प्राणी हो। अपने जीवन
का मूल कारण स्वयं तुम हो। जीवन के तत्त्वों का निर्माण तुम हमेशा करते रहते
हो। अपने जीवन को साँचे में तुम्हीं ढालते हो। अपने लिए तुम ही जिम्मेदार हो।
दूसरे पर, किसी शैतान पर यह जिम्मेदारी न थोपो। तुमको जरूरत से ज्यादा सजा
भोगनी पड़ेगी।. . .
ईश्वर के सामने (एक व्यक्ति) उपस्थित किया जाता है और वह कहता है कि 'तुमको
इकतीस बेंत लगानी पड़ेंगी. . .' उसी वक्त एक दूसरा आ पहुँचता है और वह कहता है
कि 'तीस बेंत : पंद्रह इस शख्स को और बाकी पंद्रह इसके पाजी गुरु को, जिसने
इसको यह पाठ पढ़ाया।' दूसरों को सीख देने में यही मुसीबत है। मुझे क्या
मिलेगा, मैं नहीं जानता। मैं दुनिया भर घूमता हूँ। जिस किसी को मैंने चेला
बनाया, उस हिसाब से मुझे हर एक के पीछे पंद्रह-पंद्रह बेंत खानी होंगी।. . .
हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना होगा : मेरी यह माया देवी है। यह मेरी कर्मण्यता
है, (मेरा) ईश्वरत्व है। (मेरी योगमाया) बड़ी दुस्तर है, परंतु जो पुरुष मुझको
ही निरंतर भजते हैं, वे (इस माया को लाँघ जाते हैं) संसार से तर जाते हैं।'
[11]
तुमको पता चलेगा कि अपने से इस (मायारूपी) संसार को पार कर सकना बड़ा कठिन है।
तुम पार नहीं हो सकते। यह वही पुराना सवाल है--मुर्गी और अंडा। तुम कोई काम
करो तो वही कारण हो जाता है, जो दूसरे कार्य को जन्म देता है। कार्य-कारण का
यह सिलसिला चलता रहता है। इसे तुम बंद करने की कोशिश करो तो यह नहीं रुकने का।
एक बार चालू किया हुआ चक्र घूमता ही जाएगा, कभी बंद न होगा। मैं कोई काम--भला
या बुरा--करता हूँ और (उसकी क्रिया--प्रतिक्रिया का क्रम लग जाता है). . .मैं
अब उसे रोक नहीं सकता।
हम (अपने से) इस बंधन से कभी मुक्त न हो सकेंगे। यह तभी संभव है, जब कि इस
कार्यकारण-विधान से भी अधिक शक्तिशाली कोई हो और वह हम पर दया करके हमें इससे
छुटकारा दिला दे। और हम घोषित करते हैं कि वैसा एक है--ईश्वर। वैसी एक सत्ता
उसीकी है, जो परम दयालु है. . .अगर वैसा कोई ईश्वर है, तो मेरी रक्षा संभव हो
सकेगी। अपने ही मनोबल से तुम कैसे बच सकोगे? कृपा से ही मुक्ति के सिद्धांत का
रहस्य तुमको विदित हुआ? तुम पाश्चात्य लोग बड़े चतुर हो; लेकिन दर्शन की
व्याख्या जब करने लगते हो, तो बड़े अजीब ढंग से उलझ जाते हो। मुक्ति से
तुम्हारा मतलब इस समस्त प्रकृति से छुटकारा है तो केवल कर्मसाधना से अपने को
तुम कैसे मुक्त कर सकोगे ? मुक्ति का सीधा-सादा अर्थ भगवदाश्रित हो जाना है।
तुमको मुक्ति का रहस्य-दर्शन हो जाए तो तुम जीवात्मा हो. . . प्रकृति-मात्र
नहीं ठहरते। जीवात्मा, परमात्मा, और प्रकृति से बाहर तुम ही हो। इनकी केवल
बाह्यसत्ता होती है और प्रकृति तथा जीव में ईश्वर की अंतरंग स्थिति रहती (है)।
इसलिए जीवात्मा एवं शरीर का जो संबंध है, वही जीव और ईश्वर का भी ठहरता है।
ईश्वर, जीव, प्रकृति तीनों एक हैं। वह एक है, मैंने कहा--मेरा मतलब--देह,
देही, बुद्धि से है। किंतु हम जानते हैं कि कार्य-कारण संबंध प्रकृति के कण-कण
में फैला हुआ है। एक बार तुम उसमें फंसे तो फिर कभी उससे बच निकल सकना असंभव
सा हो जाता है। कभी इसके चक्कर में आ गए तो बचाव का उपाय (काम में उलझे रहने
से) न हो पाएगा। तुम समस्त जीवधारियों के लिए अस्पताल बनवाओ. . .इतने पर भी
मोक्ष-सिद्धि नहीं होने की। (अस्पताल) बनते-बिगड़ते रहते हैं। (मोक्ष--सिद्धि)
तभी संभव होगी, जब कि प्रकृति के बंधन से परे किसी ऐसे तत्त्व की सत्ता रहे,
जो प्रकृति का नियंता हो। वही नियमों का मूल आधार है। नियम उसे बाँध नहीं
सकते. . . उसकी स्थिति है और वह परम दयालु है। तुम उसे ढूँढ़ो तो सही--वह उसी
पल (तुम्हारी रक्षा के लिए तैयार मिलेगा)।
उस सर्वशक्तिमान ने हमें उबारा क्यों नहीं? तुमको उसकी जरूरत नहीं। उसको छोड़
तुमको बाक़ी सब कुछ चाहिए। तुम जब उसकी याद करोगे, उसी दम तुमको वह मिल जाएगा।
हमें उसकी चाह नहीं। हम कहते हैं, 'प्रभु! एक आलीशान बंगला दो।' हम बंगला
चाहते हैं, उसे नहीं। मरी तन्दुरुस्ती बनाए रखो, मुसीबत से बचाओ।' जब व्यक्ति
सारे सुख-उपभोग को भूल केवल उसकी प्राप्ति की लगन रखता है तब उसे (वह मिल जाता
है); 'हे भगवान् धनी मानव का जो प्यार उसके सोने, चाँदी एवं संपत्ति पर है,
वहीं प्यार में तेरे लिए रखूं। मुझे न तो पृथ्वी की कामना है, न स्वर्ग की, न
सौंदर्य की और न तो विद्या की ही। मैं मोक्षाभिलाषी भी नहीं हूँ। मैं नरक में
बार बार जाऊँ; परंतु मुझे एक वस्तु की कामना है : तुझसे प्रेम करूँ--केवल
प्रेम के निमित्त, स्वर्ग के निमित्त भी नहीं।'
[12]
मानव जो चाहता है, वह पाता है। तुम हमेशा शरीर की लालसा करो तो (तुमको दूसरा
शरीर मिलेगा)। यह शरीर सड़ जाए तो दूसरे की चाह होती है और एक के बाद एक शरीर
मिलता जाता है। जड़ से अनुराग रहे तो जड़ ही तुम्हारे पल्ले पड़ता है। तुम
पहले जानवर होगे! अगर हड्डी चाटता हुआ कुत्ता दिखायी पड़े, तो मैं बोल उठूंगा
'ईश्वर ! रक्षा करो।' शरीर से चिपके रहे तो कुत्ते-बिल्ली की योनि में पड़ोगे।
क्रम से पतन होगा और हम खनिज पदार्थ रह जाएंगे--केवल शरीर और कुछ नहीं . . .
कुछ और व्यक्ति हैं जो समझौता करना कभी जानते ही नहीं। मोक्ष का मार्ग
सत्य--साधना है। यह एक दूसरा मूलमंत्र है. . .
इंसान ने शैतान को लात मार दी तो (मानव का आध्यात्मिक विकास सुगम हो चला)। वह
उठ खड़ा हुआ और संसार के संताप की ज़िम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली। लेकिन जब
कभी वह अतीत और भविष्य (की ओर) देखने को मजबूर हुआ, कार्य-कारण संबंध पर विचार
उठा तब घुटने टेककर प्रार्थना करने लगा--'देवाधिदेव ! तू मेरी रक्षा कर, तू ही
हमारा स्रष्टा, हमारा पिता और प्रियतम सखा है।'
यह काव्य जरूर है, पर मेरे मत से उत्तम काव्य का नमूना नहीं। ऐसा क्यों ? यह
उस असीम का वर्णन (अवश्य) है। हर भाषा में यह वर्णन-विधान मिल जा सकता है।
लेकिन यह इंद्रियगोचर स्नायु-संदर्शित' असीम है. . .
वहाँ (न) सूर्य (प्रकाशित होता है); न चंद्रमा और तारागण ही; न ये बिजलियाँ ही
वहाँ चमकती हैं।'
[13]
यह असीम का दूसरा चित्रण-विधान है। यह निषेध-परक भाषा में हुआ है।. . .
उपनिषदों के तत्त्व-निरूपण में अध्यात्म प्रधान उत्कृष्ट चित्रण लक्षित होता
है। सारे संसार में वेदांत न केवल उत्कृष्टतम दर्शन है, अपितु अद्भुत
काव्य-प्रतिभा का प्रमाण भी है. . .
ध्यान से देखो--वेद के आरंभिक एवं बादवाले छंदों में यही अंतर है। आरंभिक छंद
इंद्रिय-सापेक्ष विषय-वर्णन में प्रवृत्त हैं। सारे धर्म गोचर जगत--प्रकृति
तथा प्रकृति देवता--की असीमता से ही (प्रेरित-संचालित हैं)। (वेदांत के बारे
में यह बात नहीं)। मानवीय चेतना का समुज्ज्वल प्रकाश सर्वप्रथम इसी में
विकीर्ण दिखायी पड़ा। दिगंत में व्याप्त, असीम से कोई परितोष (न हुआ)-- 'स्वयं
प्रकट होनेवाले परमेश्वर ने समस्त इंद्रियों को बाहर की ओर जाने वाली ही
(बनाया) है। इसलिए मनुष्य इंद्रियों के द्वारा प्रायः बाहर की वस्तुओं को ही
(देखता) है, अंतरात्मा को नहीं। किसी भाग्यशाली बुद्धिमान मनुष्य ने ही अमर पद
को पाने की इच्छा करके चक्षु आदि इंद्रियों को बाह्य विषयों की ओर से लौटाकर
(अंतरात्मा को) देखा है।'
[14]
यह दिगंत में व्याप्त असीम नहीं है, लेकिन सहज असीम तत्त्व है जो देशकाल से
परे है। . . . पाश्चात्य जगत इस तत्त्वबोध से वंचित है. . .पश्चिम का चिंतन
बाह्य प्रकृति तथा प्रकृति देवता का विश्लेषण-निरूपण कर पाया है. . . अंतर्मुख
होकर (विस्मृत) सत्य का संदर्शन करो। देवाधिदेव की सहज कृपा के बिना क्या इस
स्वप्नजाल से छुटकारा मिलेगा? कर्म में प्रवृत्त हो जाने पर उसकी श्रृंखला से
परमपिता की असीम अनुकंपा के बिना मुक्ति नहीं है।
परमपिता की असीम अनुकंपा पर आश्रित रहने में (भी) स्वाधीनता कहाँ ? दासता
दासता ही है। जंजीर सोने की भी उतनी ही खराब है जितनी कि लोहे की। इस उलझन से
बचें कैसे?
तुम बँधे नहीं हो। कोई कभी बँधा नहीं होता। (आत्मा) बंधन-रहित है। वही सर्वस्व
है। तुम खंडित नहीं, अखंड हो; एक हो, दो नहीं। माया के परदे पर पड़ी तुम्हारी
परछाईं ही ईश्वर है। ईश्वर सहज (आत्मा) है। मानव अनजाने (जिसकी) उपासना करता
है, वह निजकी ही परछाई की है। (कोई कोई कहते हैं) कि स्वर्ग में रहनेवाला
परमपिता ही ईश्वर है। वह ईश्वर है क्यों? (इसलिए कि वह) तुम्हारी ही परछाई है।
अब स्पष्ट हुआ कि तुम हमेशा ईश्वर को कैसे देख रहे हो? ज्यों-ज्यों निज पर
पड़ी परत हटाते जाओ, त्यों-त्यों प्रतिबिंब भी (निखरता) जाएगा।
'एक पेड़ पर दो सुंदर पक्षी बैठे हैं। उनमें से एक शांत, स्थिर एवं भव्य (है);
नीचे रहनेवाला (जीवात्मा) दूसरा मीठे-कड़वे फल चख रहा है और सुख-दुःख भोग रहा
है। (लेकिन जीवात्मा परमतत्त्व परमात्मा को अपना निजी प्रतिबिंब जान लेता है,
तो वह कभी शोक नहीं करता।'
[15]
'ईश्वर' न कहो। 'त्वं', 'तू' न कहो। 'अहं', 'मैं' कहो। (द्वैत) की भाषा
है--'हे ईश्वर! तुम मेरे पिता हो।' (अद्वैत) की भाषा है--'तू मुझे निज से भी
अधिक प्यारा है। नाम से तेरा संकेत हो ही न पाता। अधिक निकटतम संबंधसूचक
'अहं', 'मैं' का ही प्रयोग कर पाऊंगा।'
'ब्रह्म ही सत्य है। संसार मिथ्या है। यह मेरा सौभाग्य है कि इस क्षण मुझे बोध
हुआ कि मैं बंधनहीन (रहा हूँ और) शाश्वत बंधनमुक्त रहूंगा।. . . मैं निज की ही
उपासना कर रहा हूँ। प्रकृति का मुझ पर कोई प्रभाव नहीं; भ्रम मुझसे कोसों दूर
है। प्रकृति, देवी--देवता उपासना ? परंपरागत श्रद्धा आदि के मोह दूर हुए,
क्योंकि आत्मदर्शन हो गया। मैं असीम हूँ। ये सारे--व्यक्तिविशेष,
ज़िम्मेदारियाँ, हर्ष, विषाद, गायब हो गए हैं। मैं असीम हूँ। जन्म--मृत्यु का
पाश कहाँ ? भय कहाँ? मैं एक अखंड हूँ। मैं निज से भय खाऊं? किसको (किससे) भय ?
मैं ही विराट् सत् हूँ। मैं सर्वव्यापी--सर्वांतर्यामी हूँ।'
सवाल (निजरूपबोध) का है, कर्मसाधना से मोक्ष का नहीं। तुमको मोक्ष मिलेगा भी !
तुम तो मुक्त हो (ही)।
'मैं मुक्त हूँ' कहते जाओ। दूसरे ही क्षण भ्रम में पड़ जाने के कारण 'मैं बद्ध
हूँ' रट लग जाए तो उससे परेशान न होओ। मोहजन्य समस्त इंद्रजाल को काट फेंको।
कानों में (सत्य का) यही शंखनाद पहले-पहल सुनायी पड़े। पहले यही सुनो। रात-दिन
इस पर मनन करो। सदा यही मन में भरते जाओ: 'मैं वही हूँ। मैं विश्व का प्रभु
हैं। वहाँ कभी भ्रम नहीं था. . .' पूर्ण मनोबल से, आत्म बल से इसी पर तब तक
ध्यान लगाते जाओ, जब तक ये दीवारें, गृह, सब कुछ आँखों से ओझल न हो जाए, (जब
तक) यह सारा शरीर गल न जाए। 'मैं एकाकी रहूंगा। मैं पूर्ण हूँ।' साधना करते
जाओ : 'किसी की क्या परवाह ! हम मुक्त होना चाहते हैं; (हम) सिद्धि नहीं
चाहते। नरलोक, परलोक, मृत्युलोक आदि को ठुकरा देंगे। हमें इन अष्ट सिद्धियों
एवं नव निधियों से क्या मतलब? मन वश में हो न हो। वह गतिशील बना रहे। उससे
अपना क्या वास्ता? मैं मन नहीं हूँ। मन की अपनी क्रिया जारी रहे।'
सूर्य (पुण्यात्मा-पापी दोनों को प्रकाश देता है)। क्या वह किसीके कलंक से
कलंकित हुआ है ? 'सोऽहं (मन के)--व्यापारों से मैं निर्लिप्त हूँ। सूर्य
कूड़ा-करकट पर किरणें पसारने से कलंकित नहीं हुआ। ॐ तत् सत्।'
यही (अद्वैत) का सार--धर्म है। (यह) जटिल (है)। साधना में लगो ! विचारहीन
विश्वासों को दूर करो। गुरु या ग्रंथ या देव की (सत्ता) नहीं है। मंदिर,
उपासक, आराध्य, अवतार तथा स्वयं ईश्वर से बचो। मैं ही सच्चिदानंद हूँ। इसलिए,
तत्त्वज्ञानियों! सावधान! निर्भीक हो जाओ। फिर कभी ईश्वर तथा सृष्टि-संबंधी
धारणाओं को न दुहराओ। सत्यमेव जयते इसमें
कोई संदेह नहीं। मैं ही 'असीम' हूँ, यही सत्य है।
परम्परागत धार्मिक विश्वास भ्रामक कल्पनाओं की उपज हैं . . . यह सभा, तुम
श्रोता, मैं वक्ता आदि सब कुछ भ्रम ही है। इस भ्रम का निवारण आवश्यक है। जानने
की कोशिश करो कि तत्त्वज्ञानी को कितना जागरूक होना पड़ता है ! यह (ज्ञानयोग)
की (साधना) है, ज्ञान से ही मोक्ष का विधान है। अन्य योग--साधनाएँ सरल हैं,
समय की अपेक्षा रखती हैं . . . लेकिन यह विशुद्ध बुद्धि का अपूर्व बल है।
दुर्बल व्यक्ति (इस ज्ञानमार्ग पर नहीं चल सकता। तुमको दृढ़ स्वर से कहना
होगा)--'मैं आत्मा हूँ। शाश्वत मुक्त हूँ। (मैं) कभी बँधा नहीं था। काल मुझमें
ही है; मैं काल के अधीन नहीं हूँ। ईश्वर मेरे मन की उपज है। परमपिता परमात्मा
मेरे मन की सृष्टि का परिणाम है।'
तुम अपने को तत्त्ववेत्ता-दार्शनिक मानते हो, तो प्रमाण पेश करो। इसी पर
'चिंतन करो, इसी पर विचार-विनिमय हो, साधना-पथ पर एक दूसरे का (संबल) बनो, और
रूढ़िगत विश्वासों के मोह-पाश से छुटकारा पा जाओ!
आत्मा और ईश्वर
जो कुछ देश में है, उसका रूप है। देश का स्वयं रूप है। या तो तुम देश में हो
या देश तुममें है। आत्मा समस्त देश से परे है। देश आत्मा में है, न कि आत्मा
देश में।
रूप देश और काल से सीमित है और कार्य-कारण नियम से बँधा हुआ है। समग्र काल
हममें है। हम काल में नहीं हैं। चूँकि आत्मा देश और काल में नहीं है, सभी देश
और काल आत्मा के भीतर हैं। अतः आत्मा सर्वव्यापी है।
ईश्वर के संबंध में हमारी धारणा हमारी अपनी प्रतिच्छाया है।
प्राचीन फारसी और संस्कृत में निकट का संबंध है।
ईश्वर के संबंध में आदिम धारणा प्रकृति के विविध रूपों से उसका तादात्म्य कर
देना था--प्रकृति-पूजा। अगली अवस्था में कबीलों के ईश्वर की पूजा हुई। इसके
बाद की स्थिति में राजाओं की पूजा होने लगी।
स्वर्गस्थ ईश्वर की धारणा भारत को छोड़कर सभी जातियों में प्रधान है। यह भाव
बहुत ही असंस्कृत है।
जीवन के बने रहने का भाव मूर्खतापूर्ण है। जब तक हम जीवन से छुटकारा नहीं
पाते, हम मृत्यु से छुट्टी नहीं पा सकते।
आत्मा की मुक्ति
जिस प्रकार हमें आँख के होने का ज्ञान उसके कार्यों द्वारा ही होता है, उसी
प्रकार हम आत्मा को बिना उसके कार्यों के नहीं देख सकते। इसे इंद्रियगम्य
अनुभूति के निम्न स्तर पर नहीं लाया जा सकता। यह विश्व की प्रत्येक वस्तु का
अधिष्ठान है, यद्यपि यह स्वयं अधिष्ठानरहित है। जब हमें इस बात का ज्ञान होता
है कि हम आत्मा हैं, हम मुक्त हो जाते हैं। आत्मा कभी परिवर्तित नहीं होती। इस
पर किसी कारण का प्रभाव नहीं पड़ सकता, क्योंकि यह स्वयं कारण है। यह स्वयं ही
अपना कारण है। यदि हम अपने में कोई ऐसी चीज प्राप्त कर लें, जो किसी कारण से
प्रभावित नहीं होती, तो हमने आत्मा को जान लिया।
मुक्ति का अमरता से अविच्छिन्न संबंध है। मुक्त होने के लिए व्यक्ति को
प्रकृति के नियमों के परे होना चाहिए। नियम तभी तक है, जब तक हम अज्ञानी हैं।
जब ज्ञान होता है, हमें लगता है कि नियम हमारे भीतर की मुक्ति के अतिरिक्त और
कुछ नहीं है। इच्छा कभी मुक्त नहीं हो सकती, क्योंकि वह कार्य और कारण की दासी
है। किंतु, इच्छा के पीछे रहनेवाला 'अहं' मुक्त है और यही आत्मा है। 'मैं
मुक्त हूँ'--यह वह आधार है जिस पर अपना जीवन निर्मित करके उसका यापन करना
चाहिए। मुक्ति का अर्थ है अमरता।
ईश्वर : सगुण निर्गुण
मेरा विचार है कि जिसे तुम सगुण ईश्वर कहते हो वह निर्गुण ब्रह्म ही है : एक
ही साथ सगुण भी और निर्गुण ईश्वर भी। हम लोग सगुणीकृत निर्गुण आत्माएँ हैं।
यदि तुम इस शब्द का निरपेक्ष अर्थ में प्रयोग करते हो, तब तो हम लोग निर्गुण
हैं, परंतु यदि तुम इसे सापेक्षिक अर्थ में प्रयोग करो, तब हम लोग सगुण हैं।
तुममें से प्रत्येक विश्वात्मा है, प्रत्येक सर्वव्यापक है। पहले यह संशयपूर्ण
प्रतीत हो सकता है, परंतु मेरे लिए यह उतना ही असंदिग्ध है, जितना तुम्हारे
सम्मुख मेरा खड़ा होना। आत्मा सर्वव्यापक कैसे नहीं होगी ? --न तो इसमें लंबाई
है, न चौड़ाई, न मोटाई और न किसी भी प्रकार का भौतिक गुण; फिर, यदि हम आत्मा
हैं, तो हम देश से सीमित नहीं किए जा सकते। देश केवल देश को सीमित करता है और
पदार्थ पदार्थ को। यदि हम इस शरीर में सीमित हो जाएं, तो हम कुछ भौतिक जैसी
वस्तु बन जाएंगे। शरीर, आत्मा और प्रत्येक वस्तु भौतिक होगी, और शरीर में वास
करना', 'आत्मा को मूर्त रूप देना' जैसे शब्द केवल सुविधा के हेतु प्रयुक्त
होने वाले शब्द होंगे, इसके परे उनका कोई अर्थ न होगा। आत्मा की जो परिभाषा
मैंने दी है, वह तुममें से कुछ को स्मरण होगी। प्रत्येक आत्मा एक ऐसा वृत्त है
जिसका केंद्र एक बिंदु पर है, किंतु जिसकी परिधि कहीं नहीं है। जहाँ शरीर होता
है, वहाँ केंद्र है, और वहीं कार्य की अभिव्यक्ति होती है। तुम सर्वव्यापक हो;
किंतु तुमको चेतना केवल एक बिंदु पर ही केंद्रीभूत होने की रहती है। उस बिंदु
ने पदार्थ के अणुओं को धारण कर अपनी अभिव्यक्ति के लिए उनको एक यंत्र के रूप
में बना रखा है। जिसके द्वारा वह अपने को अभिव्यक्त करता है, उसे शरीर कहते
हैं। इसलिए तुम सब जगह हो। जब एक शरीर या यंत्र बेकार हो जाता है, तब तुम जो
कि केंद्र हो, आगे बढ़ते और पदार्थ के दूसरे सूक्ष्मतर या स्थूलतर अणुओं को
धारण करते हो--और उसके द्वारा कार्य करते हो। यह मनुष्य है। और ईश्वर क्या है
? ईश्वर एक वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है और केंद्र सर्वत्र है। उस वृत्त
में प्रत्येक बिंदु सजीव, सचेतन, सक्रिय और समान रूप से क्रियाशील है। हम
सीमित आत्माओं में केवल एक बिंदु सचेतन है और वह केंद्र आगे पीछे गतिशील रहता
है। जिस प्रकार विश्व की तुलना में शरीर की सत्ता अत्यल्प है, उसी प्रकार
ईश्वर की तुलना में समस्त विश्व कुछ नहीं है। जब हम कहते हैं, ईश्वर बोलता है,
तो इसका अर्थ है कि वह अपनी सृष्टि के माध्यम से बोलता है। जब हम उसका वर्णन
उसे देश-काल से परे कहकर करते हैं, तब हम कहते हैं कि वह निर्गुण सत्ता है।
किंतु वह रहता है वही सत्।
उदाहरणार्थ : हम यहाँ खड़े हैं और सूर्य को देख रहे हैं। कल्पना करो कि तुम
सूर्य की ओर जाना चाहते हो। कुछ हजार मील उसके निकट पहुँचने पर तुमको एक दूसरा
सूर्य दिखायी पड़ेगा, और अधिक बड़ा। मान लो तुम और अधिक निकट चले जाते हो, तब
तुम और भी बड़ा सूर्य देखोगे। अंत में तुम वास्तविक सूर्य देखोगे, करोड़ों मील
विशाल ! कल्पना करो कि तुम इस यात्रा को अनेक. चरणों में विभाजित करके
प्रत्येक स्थान से चित्र लेते हो और वास्तविक सूर्य का चित्र लेने के बाद वापस
लौटकर सब चित्रों की तुलना करते हो। तब वे सब तुमको भिन्न प्रतीत होंगे,
क्योंकि प्रथम दृष्टि में वह एक छोटा लाल गोला था और वास्तविक सूर्य करोड़ों
मील विस्तृत था। तथापि सूर्य वही था। यही बात ईश्वर के संबंध में है। अनंत
सत्ता को हम भिन्न-भिन्न दृष्टि बिंदुओं से, मन के भिन्न-भिन्न स्तरों से
देखते हैं। निम्नतम मनुष्य उसे एक पितर के रूप में देखता है। जैसे जैसे उसकी
दृष्टि अधिक व्यापक होती है, वह उसे एक ग्रह के शासक के रूप में, और अधिक
व्यापक होने पर विश्व के नियंता के रूप में तथा उच्चतम मनुष्य उसे अपने ही
समान देखता है। ईश्वर वही था और भिन्न-भिन्न अनुभव केवल दृष्टि के परिमाण और
भेद थे।
सोऽहमस्मि
(
सैन फ्रान्सिस्को में २० मार्च
,
१९०० ई० को दिया गया व्याख्यान)
आज रात मेरे बोलने का विषय मनुष्य है, प्रकृति की तुलना में मनुष्य। बहुत
दिनों तक 'प्रकृति' शब्द प्रायः एकान्तिक रूप से बाह्य जगत के घटना-समूह के
अर्थ में ही प्रयुक्त होता था। यह देखा गया कि यह घटना-समूह नियमानुसार कार्य
करता है, घटनाएँ अपनी आवृत्ति स्वतः किया करती हैं : जो अतीत में घटित हुआ था,
वही पुनः घटित होता है--कोई घटना केवल एक ही बार घटित नहीं होती। इस प्रकार यह
निष्कर्ष निकला कि प्रकृति एकरूप है। एकरूपता प्रकृति की कल्पना के साथ घनिष्ठ
रूप से सम्बद्ध है। बिना इसके प्राकृतिक घटनाओं को नहीं समझा जा सकता। जिसे हम
नियम कहते हैं, उसका आधार यह एकरूपता ही है।
क्रमशः 'प्रकृति' शब्द तथा एकरूपता की धारणा का प्रयोग, जीवन और मन के
व्यापारों के संबंध में भी होने लगा। जो कुछ विभेदयुक्त है, वह सब प्रकृति है।
वनस्पति, पशु और मनुष्य तीनों का गुण (स्वभाव) प्रकृति है। मनुष्य का जीवन
निश्चित नियमों के अनुसार चलता है और उसी प्रकार मन भी। विचार यों ही उत्पन्न
नहीं होते। उनके उदय, अस्तित्व और अंत का एक नियम है। दूसरे शब्दों में जिस
प्रकार बाह्य प्रकृति नियम से आबद्ध है, उसी प्रकार आंतरिक प्रकृति अर्थात
जीवन और मानव-मन भी।
जब हम मनुष्य के अस्तित्व और मन को ध्यान में रखते हुए नियम पर विचार करते
हैं, तब यह तुरंत स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र इच्छा और स्वतंत्र अस्तित्व
जैसी कोई वस्तु नहीं हो सकती। हम जानते हैं कि पशु-प्रकृति किस प्रकार
पूर्णरूपेण नियमबद्ध है। पशु किसी स्वतंत्र इच्छा का प्रयोग करता हुआ प्रतीत
नहीं होता। यही बात मनुष्य के संबंध में भी सत्य है, मानव--प्रकृति भी
नियमबद्ध है। मानव-मन के क्रिया-कलापों का नियमन करनेवाला नियम ही कर्म का
नियम कहलाता है।
शून्य से कुछ उत्पन्न होता हुआ किसीने नहीं देखा। यदि कोई बात मन में उठती है,
तो वह भी किसी न किसी पदार्थ से उत्पन्न हुई होगी। जब हम स्वतंत्र इच्छा की
बात करते हैं, तब हमारा आशय यह होता है कि इच्छा किसी अन्य कारण से उत्पन्न
नहीं होती। परंतु यह सत्य नहीं हो सकता। इच्छा कारण से उत्पन्न होती है, कारण
द्वारा उतान होने से वह स्वतंत्र नहीं हो सकती--वह नियम से बँधी हुई है। मैं
तुमसे बात करने की इच्छा रखता हूँ और तुम मेरी बात सुनने आते हो, यह नियम है।
मैं जो कुछ करता, सोचता या अनुभव करता हूँ, मेरे आचरण और व्यवहार का प्रत्येक
अंश, मेरी प्रत्येक क्रिया--ये सब किसी न किसी कारण से उत्पन्न होते हैं, अतः
स्वतंत्र नहीं है। जीवन और मन का यह नियमन ही कर्म का नियम है।
यदि प्राचीन काल में ऐसा सिद्धांत पश्चिमी समाज में प्रतिपादित किया जाता, तो
भारी उथल-पुथल मच जाती। पश्चिम का मनुष्य यह नहीं सोचना चाहता कि उसका मन नियम
से शासित होता है। किंतु भारत में जैसे ही वहाँ की प्राचीनतम दर्शन-पद्धति
द्वारा यह प्रतिपादित किया गया, स्वीकार कर लिया गया। मन की स्वतंत्रता जैसी
कोई चीज नहीं, वह हो भी नहीं सकती। इस सिद्धांत के प्रतिपादन से भारतीय मन में
कोई उथल-पुथल क्यों नहीं हुई ? भारत ने इसे शांतिपूर्वक स्वीकार कर लिया; यही
भारतीय विचारधारा की विशेषता है। यहीं पर वह अन्य सभी विचारधाराओं से भिन्न
है।
बाह्य और आंतरिक प्रकृतियाँ दो भिन्न वस्तु नहीं हैं, वस्तुतः वे एक हैं।
प्रकृति समस्त घटनाओं की समष्टि है। 'प्रकृति से आशय है--वह सब जो है, वह सब
जो गतिशील है। हम जड़ वस्तु, और मन में अत्यधिक भेद मानते हैं। हम सोचते हैं
कि मन जड़ वस्तु से पूर्णतः भिन्न है। वस्तुतः वे एक ही प्रकृति हैं, जिसका
अर्द्धांश दूसरे अर्द्धांश पर सतत क्रिया किया करता है। जड़ पदार्थ विभिन्न
संवेदनों के रूप में मन पर प्रभाव डालता है। ये संवेदन शक्ति के सिवा और कुछ
नहीं हैं। बाहर से आनेवाली शक्ति भीतर की शक्ति को आंदोलित करती है। बाह्य
शक्ति के प्रति अनुक्रिया करने अथवा उससे दूर हट जाने की इच्छा से आंतरिक
शक्ति जो रूप धारण करती है, उसे हम विचार कहते हैं।
जड़ पदार्थ और मन दोनों ही वास्तव में शक्ति ही हैं और यदि तुम उनका विश्लेषण
गहराई से करो, तो पाओगे कि मूलतः दोनों एक हैं। बाह्य शक्ति किसी प्रकार
आंतरिक शक्ति को प्रेरित कर सकती है, इसी बात से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे
कहीं एक दूसरे से संयुक्त होती हैं--वे अवश्यमेव अखंड हैं और इसलिए वे मूलतः
एक ही शक्ति हैं। जब तुम इन सबके मूल में जाते हो, तब वे सरल एवं सामान्य
प्रतीत होती हैं। चूँकि वही शक्ति एक रूप में जड़ वस्तु, दूसरे रूप में मन
होकर प्रकट होती है, अतः मन और जड़ पदार्थ को भिन्न समझने का कोई कारण नहीं
है। मन जड़ पदार्थ के रूप में परिवर्तित होता है और जड़ पदार्थ मन के रूप में।
विचार-शक्ति ही स्नायु-शक्ति, पेशी-शक्ति बन जाती है और स्नायु-शक्ति एवं
पेशी-शक्ति विचार-शक्ति। प्रकृति ही यह सब शक्ति है, चाहे वह जड़ वस्तु के रूप
में अभिव्यक्त हो, चाहे मन के रूप में।
सूक्ष्मतम मन एवं स्थूलतम जड़-पदार्थ के बीच केवल मात्रा का ही अंतर है। अतएव,
समस्त विश्व को मन या जड़ दोनों कहा जा सकता है। इन दोनों में क्या कहें यह
महत्त्व नहीं रखता। तुम मन को सूक्ष्म जड़ पदार्थ कह सकते हो, अथवा शरीर को मन
का स्थूल रूप। तुम किसे किस नाम से पुकारते हो, उससे कोई अंतर नहीं पड़ता। गलत
ढंग से सोचने के कारण ही भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद के बीच संघर्ष से कठिनाइयाँ
उत्पन्न होती हैं। वास्तव में दोनों में कोई भेद नहीं है। मुझमें और हीनतम
सूअर में केवल मात्रा का अंतर है--सूअर कम अभिव्यक्त हुआ, मैं अधिक। कभी मैं
उससे बुरा हो जाता हूँ, कभी सूअर मुझसे अच्छा रहता है।
और न इस बात पर विवाद करने से कोई लाभ है कि पहले जड़ होता है या (चेतन) मन।
क्या मन पहले आता है, जिससे जड़ वस्तु निकली है ? या पहले जड़ वस्तु हुई,
जिससे मन निकला ? बहुत से दार्शनिक तर्क इन बेकार प्रश्नों को लेकर आगे बढ़ते
हैं। यह तो वैसे ही है, जैसे कि यह पूछना कि पहले अंडा हुआ या मुर्गी। दोनों
ही प्रथम हैं और दोनों ही अंतिम --मन और जड़ वस्तु, जड़ वस्तु और मन। यदि मैं
यह कहता हूँ कि जड़ पदार्थ पहले होता है और सूक्ष्मतर होता हुआ वह मन बन जाता
है, तब मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि पदार्थ के पूर्व मन अवश्य रहा होगा।
अन्यथा पदार्थ कहाँ से आया ? जड़-पदार्थ मन से पहले है, और मन जड़-पदार्थ से
पहले है। यह सदैव मुर्गी-अंडे जैसा प्रश्न है।
समस्त प्रकृति कार्य-कारण संबंध के नियम से बँधी हुई है और देश-काल में स्थित
है। हम कोई चीज़ देश से परे नहीं देख सकते, तो भी हम देश को नहीं जानते। हम
लोग कोई चीज काल से परे नहीं जानते, पर हम काल को भी नहीं जानते। हम किसी चीज
को कार्य-कारण संबंध के सिवा और किसी रूप में नहीं समझ सकते, तथापि हम नहीं
जानते कि कार्य-कारण संबंध क्या है। ये तीन देश, काल और कार्य-कारण--प्रत्येक
घटना में विद्यमान हैं। परंतु वे घटना नहीं हैं। मानो वे रूप और साँचे हैं,
जिनमें ज्ञेय बनने के पूर्व हर वस्तु का ढलना आवश्यक है। पदार्थ--उपादान, काल,
देश और कार्य-कारण संबंध का संघात है। मन--उपादान, काल, देश और कार्य-कारण
संबंध का संघात है।
इस तथ्य को दूसरे प्रकार से भी व्यक्त किया जा सकता है। प्रत्येक वस्तु
उपादान, नाम एवं रूप का योग है। नाम और रूप आते-जाते रहते हैं, किंतु उपादान
सदा वही रहता है। यह घड़ा उपादान, रूप और नाम से निर्मित है। जब यह टूट जाता
है, तब तुम इसे घड़ा नहीं कहते और न तुम इसके घड़ा रूप को ही देखते हो। इसका
नाम और रूप नष्ट हो जाता है, किंतु इसका उपादान शेष रहता है। उपादान में जो
अंतर किया जाता है, वह नाम और रूप के द्वारा ये वास्तविक नहीं हैं, क्योंकि ये
नष्ट हो जाते हैं। जिसे हम प्रकृति कहते हैं, वह अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी
उपादान नहीं है। प्रकृति देश, काल एवं कार्य-कारण संबंध है। प्रकृति, नाम और
रूप है। प्रकृति माया है। माया का अर्थ है नाम और रूप, जिसमें प्रत्येक वस्तु
ढाली जाती है। माया सत्य नहीं है। यदि वह सत्य होती, तो हम उसे नष्ट या
परिवर्तित न कर सकते। उपादान तत्त्व है और माया दृश्य। एक तो वास्तविक है,
जिसे कोई नष्ट नहीं कर सकता और दूसरा दृश्य-रूप 'मैं' है, जो सतत परिवर्तित और
नष्ट हो रहा है।
वास्तविकता यह है कि जो कुछ भी अस्तित्व रखता है, उसके दो पक्ष हैं। एक
तात्त्विक--अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी; दूसरा रूप--परिवर्तनशील एवं नश्वर।
मनुष्य अपने सच्चे रूप में तत्त्व, जीव, आत्मा है। यह जीव, यह आत्मा कभी
परिवर्तित नहीं होती, कभी नष्ट नहीं होती। किंतु वह एक रूप का चोला पहने हुए
तथा एक नाम से संबद्ध प्रतीत होती है। ये नाम और रूप अखंड और अविनाशी नहीं है,
वे सतत परिवर्तित और नष्ट होते हैं। फिर भी लोग मूर्खतापूर्वक इस परिवर्तनशील
रूप, शरीर और मन में अमरत्व की खोज करते हैं वे एक शाश्वत शरीर प्राप्त करना
चाहते हैं। मैं उस प्रकार का अमरत्व नहीं चाहता।
मेरे और प्रकृति के बीच क्या संबंध है ? जहाँ तक प्रकृति से आशय नाम, रूप,
काल, देश और कार्य-कारण संबंध से है. मैं प्रकृति का अंश नहीं हूँ, क्योंकि
मैं मुक्त हूँ, अमर हूँ, अपरिवर्तनशील एवं अनंत हूँ। मेरी स्वतंत्र इच्छा है
या नहीं, यह प्रश्न नहीं उठता। मैं किसी भी प्रकार की इच्छा से पूर्णतः परे
हूँ। जहाँ भी इच्छा है, वह मुक्त नहीं है। इच्छा की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज
नहीं है। मुक्ति उस चीज की है जो नाम और रूप के बंधन में बंधने और उनका दास
बनने पर इच्छा का रूप धारण करती है। वह तत्त्व--आत्मा--मानो अपने को नाम-रूप
के साँचे में ढालती है और तुरंत बद्ध हो जाता है, जबकि वह पहले मुक्त थी। फिर
भी उसका मौलिक स्वरूप अब भी वर्तमान है। इसीलिए वह कहती है, "मैं मुक्त हूँ,
इन सब बंधनों के बावजूद मैं मुक्त हूँ।" वह इसे कभी नहीं भूलती।
परंतु इच्छा का रूप धारण कर लेने पर वह वास्तव में स्वतन्त्र नहीं रह जाती।
प्रकृति डोर खींचती है और जैसा चाहती है, वैसा ही उसे नाचना पड़ता है। इसी
प्रकार हमने और तुमने वर्षों से नाच नाचा है। वह सब जो हम देखते, करते, जानते
और अनुभव करते हैं, हमारे समस्त विचार और कार्य प्रकृति के इशारे पर नाचने के
सिवा और कुछ नहीं हैं। इनमें से किसी में स्वतंत्रता न तो रही है और न है।
निम्नतम से लेकर उच्चतम तक समस्त विचार और कार्य नियम से बँधे हैं और इनमें से
किसीका भी हमारे वास्तविक स्वरूप से संबंध नहीं है।
मेरा वास्तविक स्वरूप नियमों से परे है। जब तुम दासता से, प्रकृति से सामंजस्य
स्थापित करते हो, तब तुमको नियम के अधीन रहना पड़ता है। तुम नियम से बँधे हुए
प्रसन्न रहते हो। किंतु जितना अधिक तुम प्रकृति और उसके आदेशों का पालन करते
हो, उतना ही अधिक तुम बँध जाते हो। जितना ही तुम अज्ञान के साथ सामंजस्य
स्थापित करते हो, उतना ही तुम विश्व की प्रत्येक वस्तु के इशारे पर नाचते हो।
क्या प्रकृति के साथ यह सामंजस्य, यह नियम का पालन मनुष्य के वास्तविक स्वभाव
और लक्ष्य के अनुकूल है ? किस खनिज पदार्थ ने कभी नियम से संघर्ष या कलह मोल
ली? किस वृक्ष या पौधे ने नियम का उल्लंघन किया? यह मेज प्रकृति के नियम के
सामंजस्य में है, परंतु यह सदा मेज ही बनी रहती है, इससे आगे उन्नति नहीं
करती। मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध युद्ध और संघर्ष करना प्रारंभ करता है। वह
अनेक भूलें करता है, कष्ट भोगता है। परंतु अंत में प्रकृति पर विजय प्राप्त
करता है और अपनी मुक्ति प्राप्त कर लेता है। जब वह मुक्त हो जाता है, तब
प्रकृति उसकी दासी बन जाती है।
आत्मा का अपने बंधन के प्रति जागरूक हो जाना, उठ खड़े होकर स्व-प्रतिष्ठापन का
प्रयास करना--इसी को जीवन कहते हैं। इस संघर्ष में सफल होना ही विकास कहलाता
है। अंतिम विजय, जब समस्त दासता नष्ट हो जाती है, मोक्ष--निर्वाण, मुक्ति
कहलाती है। विश्व में प्रत्येक वस्तु मुक्ति के लिए संघर्षरत है। जब तक मैं
प्रकृति से, नाम-रूप से, देश-काल एवं कार्य-कारण संबंध से बँधा हुआ हूँ, मैं
नहीं जानता कि मैं वस्तुतः हूँ क्या? किंतु इस बंधन में भी मेरा वास्तविक
स्वरूप पूर्णतः खो नहीं जाता। मैं बंधनों को तोड़ने के लिए जोर लगाता हूँ, एक
एक करके वे टूटते हैं और मुझे अपने जन्मजात दिव्यत्व का भान हो जाता है। तब
पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है। मुझे अपने स्वरूप का पूर्णतम एवं स्पष्टतम
ज्ञान हो जाता है--मैं जानता हूँ कि मैं अनंत आत्मा हूँ, प्रकृति का स्वामी
हूँ, उसका दास नहीं। समस्त भेदों एवं संघातों के परे, देश, काल एवं कारणता से
परे, मैं अपना स्वरूप हूँ। सोऽहमस्मि।
[1]
यथा सुदीप्तात् पावकाद् विस्फुलिंगाः सहस्रशः प्रभवन्ते सरूपाः।
तथाक्षराद् विविधाः सोम्य भावाः प्रजायन्ते तत्र चैवापियन्ति।
--मुण्डकोपनिषद् ॥२॥११॥
[2]
विज्ञातारमरे केन विजानीयात्। बृहदारण्यकोपनिषद् ॥५॥१५॥
[3]
द्र. छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद्।
[4]
न मे मृत्युशडका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्नमित्रं गुरु व शिष्यश्चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥
--निर्वाणषट्क ॥५॥
[5]
क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत्। विवेकचूड़ामणि ॥४८५।।
[6]
यह कहानी बाइबिल के प्राचीन व्यवस्थान में है। ईश्वर ने आदि नर आदम और
आदि नारी ईव का सर्जन करके उन्हें ईडन के सुरम्य उद्यान में स्थापित
किया ओर उस उद्यान के ज्ञानवृक्ष का फल खाने से मना कर दिया। किन्तु
शैतान ने साँप का रूप धारण करके पहले ईव को प्रलोभित किया, उसके
पश्चात् आदम को उस वृक्ष का फल खाने के लिए प्रलोभित किया। इससे ही
उन्हें भले-बुरे का ज्ञान हुआ और पाप ने पहले पृथ्वी में प्रवेश किया।
[7]
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनः। केनोपनिषद् ॥१॥३॥
[8]
२३ मार्च, १९०० ई० को सैनफ्रांसिस्को में दिया गया भाषण; संकेत लिपि
द्वारा आलिखित यह विवरण अपूर्ण मिला था। स्पष्टीकरणार्थ कहीं कहीं
कोष्ठक में अतिरिक्त सामग्री रखी गयी है, और जहाँ विवरण उपलब्ध नहीं
हुआ है, वहाँ तीन बिंदु से चिह्नित किया गया है। सं०
[9]
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही।
----गीता ॥२।२२॥
[10]
अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः॥
---श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥३॥१९॥
[11]
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥
---गीता॥७।१४॥
[12]
या प्रीतिरविवेकानां विषयेष्वनपायिनी।।
त्वामनुस्मरतः सा मे हृदयान्मापसर्पतु॥ प्रपन्नगीता ॥४२॥
न धनं न जनं न सुंदराम्
कविता वा जगदीश कामये।
मम जन्मनि जन्मनीश्वरे
भवताभक्तिरहैतुकी त्वयि ॥ शिक्षाष्टक ॥४॥
दिवि वा भुवि वा ममास्तु वासो नरके वा नरकांतक प्रकामम्।
अवधीरितशारदारविंदौ चरणौ ते मरणेऽपि चिंतयामि।। मुकुन्दमाला ॥८॥
[13]
न तत्र सूर्यो भाति न चंद्रतारकं
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति॥ मुण्डकोपनिषद् ॥२॥२॥१०॥
[14]
पराञ्चि खानि व्यतृणत्स्वयंभूस्तस्मात्पराङ पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्त्वमिच्छन्।
---कठोपनिषद्॥२॥२॥१॥
[15]
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति॥
समाने वृक्षे पुरुषो निमग्नोऽनीशया शोचति मुह्यमानः।
जुष्टं यदा पश्यत्यन्यमोशमस्य महिमानमिति बीतशोकः॥
---मुण्डकोपनिषद् ३।१।१-२॥